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बाधात् किया और उन से शास्त्रों का पढ़ना प्रारम्भ किया, क्योंकि बिना ऐसा किये वे उन लोगों के सिद्धन्तों का खण्डन भी नहीं कर सकते थे । अन्त में उन्हों ने प्राचार्य मलारकालाम्* ' से भेट की। ये बड़े बड़े विद्वान् श्रध्यापकों और प्राचाय्या में श्रेष्ठतम समझे जाते थे । इन
पास बहुत से श्रोता श्री के निवाय ३०० शिष्य भी थे । माथं बहुत ही सुन्दर रूपवान् थे । जब वे उपरोक्त प्राचार्य के श्राश्रम में गये तो लोग उनकी सुदरताकी मन ही मन में बड़ी सराहना करने लगे ; विशेषतः प्राचाय्यं ने उनको बहुत ही अधिक सराहा। इसके बाद हो सिद्वार्थ की विद्वत्ता से वे ऐमे ममन्न हुए, कि वे उनकी विद्याकी सुन्दरता से भी बहुत अधिक प्रशंसा करने लगे । सिद्धार्थ बहुत शीघ्र इतने योग्य होगये, कि श्राचाय्यं ने उन्हें अपनी बराबरी का शिक्षक बनने को कहा, परन्तु सिद्धार्थने ममता पूर्वक 'अस्वीकार कर दिया। इस नवोन ऋषि ने अपने मन में सेाचा:
" प्राचार्य का यह सिद्धान्त यथार्थ स्वतन्त्रता देने वाला नहीं है । इसका अभ्यास मनुष्य जाति को दुःख से बिलकुल नहीं जुड़ा सकता । इस सिद्वान्त को यथेष्ट बनाने के लिये प्रयत्न करूंगा । केवल भूखें। मरने और इन्द्रियों के जीतने से क्या होगा ? इस से भी कुछ अधिक -पूरी स्वाधीनता - पाने के लिये मुझे कुछ और खोज करनी पड़ेगी ।
सिद्वार्थ कुछ समय तक वैशाली में रहे, इस नगर को
• इस नाम में कुछ गड़बड़ मालूम होती है । अंगरेजी में " Alarkalam." लिखा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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