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( २४ ) ण हो दूसरा भाग भी अवश्य प्रमाण है। वह वाक्य एक है अथवा वाक्य समूह है इस की चर्चा प्रकृत विषय से कुछ सम्बन्ध नहीं रखती।
निःसन्देह दयानन्द सरस्वती को अधिकार नहीं कि कात्यायन के उस वाक्य को प्रक्षिप्त बतावें जिस के अनुसार मन्त्र औ ब्राह्मण का नाम वेद सिद्ध होता है। ऐसे तो जो जिस किसी वचन को चाहे अपने अविवेक कल्पित मत से विरुद्ध पाकर प्रक्षिप्त कहदे।
दयानन्द सरस्वती बाह्मण ग्रन्थों की प्रमाणता नहीं मानते तो तैतिरीय संहिता के ब्राह्मण भागों को क्या कहेंगे.। इन बाह्मण भागों में और शतपथ पञ्चविंश आदि बाह्मण में कुछ भी अन्तर नहीं है। और फिर तैतिरीय बाह्मण के जो मन्त्र हैं क्या उन सब को भी
यहां इस के लिखने की आवश्यकता नहीं कि स्वामीजी महाराज जो लिखते हैं कि “वेदों (संहिता) में इतिहास होते तो वेद आदि और सब से प्राचीन नहीं होसक्ते ++ इस लिये++ जमदग्नि आदि शब्दों से चक्षु आदि ही अर्थों का ग्रहण करना योग्य है” (भ्र० पृष्ठ.१६ ) सो मेरा अभिप्राय तो इतना ही है कि यदि बाह्मण ग्रन्थों के अनुसार जमदग्नि आदि का अर्थ योंही माना जावे तो संहि
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