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( २३ ) केवल "जीवोक्त”। परन्तु इस बात का प्रमाण क्या देते हैं ? अब तक उन्होंने दन्तकथा ही केवल कह रक्खी है, संहिता मात्र का स्वतः प्रमाण होना और ब्राह्मण औ उपनिषद् वाक्यों का निरा परतः प्रमाण होना तभी माना जासका है जब दयानन्द सरस्वती दृढ़तर युक्ति देवें । आज तक जो युक्तियां दी हैं उनसे कुछ भी सिद्ध नहीं हो. ता है । राजा शिवप्रसाद का यह पूछना न्याय्य है कि “यदि एक स्वतः प्रमाण है तो दोनों क्यों न हों” अथवा “यदि एक परतः प्रमाण है तो दोनों क्यों न हों” और यह तो कभी युक्ति युक्त हो ही नहीं सक्ता कि वेदभिन्न पुस्तकों को भी कोई इसी रीति से कह दे कि वे भी वेद के समान हैं क्योंकि केवल वेदही को (ब्राह्मण औ उपनिषदों के सहित ) अनादि काल से ( since immemorial times अर्थात् इतने प्राचीन काल से कि जिसका ठिकाना कोई नहीं बता सक्ता ) सब आर्य लोग अपने धर्म का मूल ग्रन्थ और परमेश्वर की वाणी मानते रहे हैं।
दयानन्द सरस्वती ने शतपथ ब्राह्मण (वृहदारण्यक उपनिषद् ) से जो वचन उद्धार किया है उस पर तो इस बात का अवश्य स्वीकार करना उचित है कि राजा शिवप्रसाद की विरतिपत्ति अर्थात् दूप. ण सयुक्तिक है उस वाक्य का एक भाग यदि प्रमा
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