Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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(२) आगमकालीन प्राकृत कथाओं का परिशीलन
जैन श्रागम अर्धमागधी और शौरसेनी इन दो प्राकृत भाषाओं में निबद्ध मिलता है ।) यह सत्य है कि मूलतः श्रागम अर्धमागधी में ही था, पर एक परम्परा वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी श्रागम को मूल आगम नहीं मानती, यतः उस परम्परा की प्रागमिक कृतियां शौरसेनी प्राकृत में हैं। यहां उक्त दोनों ही भाषाओं में उपलब्ध श्रागमिक कथा- कृतियों पर विचार उपस्थित किया जायगा ।
श्राचारांग में कुछ ऐसे रूपक और प्रतीक मिलते हैं, जिनके आधार पर पालि, प्राकृत और संस्कृत में कथाओं का विकास हुआ है। छठवें अध्ययन के प्रथमोद्देशक में 'से बेमि से जहावि कुम्मे हरए विणिविट्ठचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहई भंजगा इव 'न लभंति मुक्खं । श्र० ६।१, पृ ४३७ ।
अर्थात् --- एक कछ ुए के उदाहरण द्वारा, जिसे शैवाल के बीच में रहने वाले एक छिद्र से ज्योत्स्ना का सौन्दर्य दिखलायी पड़ा था, जब वह पुनः अपने साथियों को लाकर उस मनोहर दृश्य को दिखाने लगा, तो उसे वह छिद्र ही नहीं मिला, इस प्रकार त्याग मार्ग में सतत सावधानी रखने का संकेत किया है । यह रूपक कथा- विकास के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है । मज्झिमनिकाय और संयुक्तनिकाय में इसी रूपक के आधार पर धर्मकथा उपलब्ध होती हूँ | महात्मा गौतमबुद्ध भिक्षुत्रों को मनुष्य जन्म की दुर्लभता बतलाते हुए कच्छप का उपर्युक्त उदाहरण भी उद्धृत करते हैं। बताया गया है -
"संय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो एकच्छ्रिग्गलं युगं महासमुद्दे पक्खिपेय्य । तमेनं पुरत्थिमो वातो पच्छिमेन संहरेय्य, पच्छिमो वातो पुरत्थमेन संहरेय्य, उत्तरोवातो दक्खिणेन संहरेय्य, दक्खिणो वातो उत्तरेन संहरेय्य । तत्रास्स काणो कच्छपो, सो वस्ससतस्स वस्ससतस्स अच्चयेन सकिं उम्मुञ्जेय्या तं किं मञ्ञ, भिक्खवे, अपि तु सो काणो कच्छपो प्रमुस्मि एकच्छ से युगे गौवं पव सेय्याति ?"
"नो हेतं, भन्ते । यपि पन भन्ते, कदापि करहचि दीघस्स श्रद्धनो श्रच्चयेना" ति ।
"खिष्पतरं खो सो, भिक्खवं, काणो कच्छपो श्रमस्मि एकच्छिग्गले युगे गीवं पर्व सेय्य, तो दुल्लभतराहूं, भिक्खवे, मनुस्सत्तं वदामि सकिं विनिपातगतेन बालेन । तं किस्स हेतु ? न हेल्थ, क्खिवे, प्रत्थि धम्मचरिया, समचरिया, कुसलकिरिया, पुञ्ञकिरिया । मञ्जखादिका एत्थ भिक्खवे वर्त्तात दुब्बलखादिका ।"
श्रञ्ज
संयुक्त निकाय में भी यह रूपक इसी प्रकार मिलता है-
" सेय्यथापि, भिक्ख, पुरिसो महासमुद्द एकच्छिग्गलं युगं पक्खिपेय्य । " तत्र पिस्सकाणो कच्छपो । सो वस्ससतस्स वस्ससतस्स श्रञ्ञयेन सकि सकि उम्मुज्येय । तं किं मञ्जय, भिक्खवे, श्रपि न खो काणो कच्छपो वस्ससतस्स वस्ससतस्स श्रच्चयेन सकिं सकिं उम्मुज्जन्तो श्रस्मिं एकच्छिग्गले युगे गीवं पव सेय्या" ति ।
इससे स्पष्ट है कि कच्छपवाला रूपक प्राचीन साहित्य में बहुत लोकप्रिय रहा हैं और इसका व्यवहार निरन्तर होता रहा है । श्रतः श्राचाराङ्गसूत्र में उल्लिखित रूपक उत्तरकालीन कथानों का स्रोत है ।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की तीसरी चूला में महावीर की जीवनी उपलब्ध होती है । इसमें कथातत्त्व की दृष्टि से जीवनांकन की रेखाएँ संकेतात्मक हैं ।
१ - मज्झिमनिकाय भाग ३, पृ० २३६-४० - - नालन्दा संस्करण, बालपण्डितसुत्त | २ – संयुक्तनिकाय भाग ५, पृ० ३८६ - - पठमच्छिग्गलयुग सुत्तं, नालन्दा संस्करण !
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