Book Title: Haribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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ख - - आगमयुगीन प्राकृत कथा - साहित्य
( १ ) इस युग की कथा प्रवृत्तियों का सामान्य विवेचन
प्राकृत की प्रागमिक कथानों का स्वरूप नितान्त धार्मिक और नैष्ठिक है । (आगमों की प्रायः समस्त कथाएं धर्म या दर्शन सम्बन्धी किसी सिद्धान्त को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करती हैं । धार्मिक कथाओं का लक्ष्य शुद्ध मनोरंजन से कहीं ऊंचा होता है, और अपने लक्ष्य को लेकर साधारण लोक-कथाओं से वे पृथक् भूमि पर खड़ी होती हैं । ( धार्मिक कथानों का लक्ष्य होता है, लोक जीवन में धर्म की स्थापना, नैतिक मा दण्डों की प्रतिष्ठा और बुराई के स्थान पर भलाई की विजय प्रदर्शित करना। साधारण लोककथानों में किसी व्यभिचारी को काम लीलाओं का रसमय वर्णन हो सकता है और " किस्सागो" को इसकी चिन्ता नहीं होती कि उनका कैसा अनैतिक प्रभाव श्रोताओं पर पड़ेगा । धार्मिक कथाओं में यदि किसी पात्र के जीवन में व्यभिचार या नैतिक अधःपतन दिखाया जायगा, तो उस अधःपतन के कुपरिणामों का भी अवश्य निर्देश रहेगा । साधारणतया लोक-कथाओं में किसी ठग या चोर के साहसिक वृत्तान्तों का कौतूहलवर्धक वर्णन रहता है या रह सकता । उन वृत्तान्तों के असामाजिक तत्वों की आलोचना का प्रभाव भी उनमें रह सकता है, किन्तु धार्मिक कथाओं में उन चोरों या ठगों को जीवन के किसी-न-किसी भाग में श्रवश्य ही दण्ड दिलाया जाता है, ससे समाज ऊपर अच्छे संस्कार पड़ सकें । यों तो बुराई के ऊपर भलाई की स लोक-कथाओं में भी प्रायः दिखलायी जाती है, किन्तु धार्मिक कथानों में इसका विधान अवश्यम्भावी है । अतः श्रागमिक कथाओं का प्राकलन धर्म विशेष के सन्दर्भ में रखकर ही करना संगत होगा । ये कथाएं कहां तक धार्मिक सिद्धान्तों और नियमों, श्राचार-व्यवस्थाओं को व्यञ्जित करती हैं, इसी तथ्य पर इनकी सफलता और कथा के रूप में इनका प्रभाव निर्भर करता है । ( इन कथाओं की प्रकृति उपदेशात्मक है, इसीलिए इनका वातावरण और इनका कथात्मक परिवेश धार्मिक स्थान, धार्मिक व्यक्तियों, धार्मिक कथोपकथनों एवं धार्मिक सम्बन्धों के चारों ओर चक्कर काटता है तभी उपदेशात्मकता का निर्वाह संभव है और तभी कथा के रूप में उसके प्रभाव की अन्विति सुरक्षित रह सकती है। अपनी प्रकृति की इसी नितान्त वैयक्तिकता की दृष्टि से इन कथाओं का स्वरूप जातीय हूँ और जाति की धार्मिक सम्पत्ति तथा धार्मिक मूल्यों के प्रकाशन में इन कथाओं में समाज शास्त्रीय सापेक्षतावाद के अनुसार धार्मिक सापेक्षता या जातीय सापेक्षता का सन्निवेश द्रष्टव्य है । यह सापेक्षता इस बात पर आधारित है कि ये कथाएं अपने समय के समाज के धार्मिक नियमों और रूपों को यथातथ्य रूप में उपस्थित करती हैं ।
( कथासाहित्य के विकासक्रम की दृष्टि से कथा का विकास प्रसंभव ( impossible ) से दुर्लभ (improbable ), दुर्लभ से संभव (possible) और संभव से सुलभ (probable ) की प्रोर होता है । श्रागमिक प्राकृत कथानों में वैभव का निरूपण, व्रतों, प्राचारों, प्रतिचारों, परिमाणों के स्थूल थका देने वाले चित्रण, चरित्र की शुद्धता पर अत्यधिक जोर ये सारे तत्व विकास की दूसरी कोटि में आते हैं। जहां श्रविश्वसनीय चित्रण की भरमार उसकी दुर्लभता या दुर्घटता का प्रकाशन करती है, वहां नैतिक उच्च श्रादर्श उसे संभव और सुलभ भी बनाते हैं ।
घटना विहीनता, मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता एवं शीलनिरूपण के लिए श्रावश्यक वातावरण और कथोपकथन की कमी प्रभृति तथ्य इन कथाओं के स्थापत्य को विरूप नहीं करते, अपितु धार्मिकता का समाहार, जीवन को उसके समस्त विस्तार में देखने की प्रवृत्ति इन कथाओं को विशुद्ध कथात्मकता के धरातल पर प्रतिष्ठित करती है । स्थापत्य की दृष्टि से इन कथाओं का शिल्प रूपरेखा मुक्त कहा जा सकता है । इन कथानों में पौर सौन्दर्य का निदर्शन स्पष्ट है- -- एक पूरा चरित्र, एक पूरा व्रत, कोई वर्जना, कोई
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