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आपस्तम्ब का धर्मसूत्र
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आये हैं (२.५.२४) । बौधायन ने अभिनेता तथा नाट्याचार्य के पेशे को उपपातक कहा है। बौधायनधर्मसूत्र के भाष्यकार हैं गोविन्दस्वामी, जिनकी टीका विद्वत्ता एवं तथ्य से पूर्ण है ।
७. आपस्तम्ब का धर्मसूत्र
इस धर्मसूत्र के संस्करण कई बार निकले हैं, यथा हरदत्त की उज्ज्वला नामक टीका के बहुलांश के साथ बहलर ने इसे बम्बई संस्कृतमाला के अन्तर्गत सम्पादित किया है। हरदत्त की सम्पूर्ण टीका के साथ कुम्भकोणम् में यह छपा है, जिसका भूमिकासहित अनुवाद बुहलर ने किया है। " कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के आपस्तम्ब कल्पसूत्र में ३० प्रश्न हैं। आपस्तम्बीय श्रोत, गृह्य एवं धर्मसूत्र एक ही व्यक्ति द्वारा प्रणीत हुए थे; यह कहना कठिन है । गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्र सम्भवतः एक ही व्यक्ति द्वारा प्रणीत हुए हों, ऐसा रचना - सम्बन्धी समानता देखकर कहा जा सकता है। यह बात स्मृतिचन्द्रिका में भी आयी है ( ३, पृ० ४५८ ) ।
आपस्तम्बधर्मसूत्र की विषय-सूची इस प्रकार है--- प्रश्न २ -- वेद एवं धर्मज्ञों के आचार-व्यवहार धर्म के उपादान हैं; चारों वर्ण और उनका प्राथम्य; आचार्य की परिभाषा और उसकी महत्ता; वर्णों एवं इच्छा के अनुसार उपनयन का समय; उपनयन के उचित समय के अतिक्रमण पर प्रायश्वित्त; जिसके पिता, पितामह एवं प्रपितामह का उपनयन संस्कार नहीं हुआ रहता वह पतित हो जाता है, किन्तु प्रायश्चित्त से वह पवित्र हो सकता है; ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य, उसका गुरु के साथ ४८, ३६, २४ या १२ वर्षों तक निवास; ब्रह्मचारी के आचरण के लिए नियम, उसका दण्ड, मेखला एवं परिधान, भोजन के लिए भिक्षा नियम, समिधा लाना, अग्नि को समर्पित करना; ब्रह्मचारी के नियम उसके तप हैं; वर्णों के अनुसार गुरु तथा अन्य लोगों को प्रणाम करने की विधियाँ; विद्याध्ययनोपरान्त गुरु-दक्षिणा; स्नातक के लिए नियम; वेदाध्ययन के समय, स्थान एवं छुट्टियों के बारे में नियम; छुट्टियों के नियम वेदाध्ययन में प्रयुक्त होते हैं न कि वैदिक क्रिया-संस्कारों के मन्त्रों के प्रयोग में; भूतों, मनुष्यों, देवताओं, पितरों, ऋषियों, उच्च जाति के लोगों के सम्मान के लिए, वृद्ध पुरुषों, माता-पिता, भाइयों, बहिनों तथा अन्य लोगों के लिए प्रतिदिन के पांच यज्ञ; वर्णों के अनुसार एक-दूसरे के स्वास्थ्य के बारे में पूछने की विधियाँ; यज्ञोपवीत पहनने के अवसर ; आचमन का काल एवं ढंग उचित एवं निषिद्ध भोज्य एवं पेय पदार्थों के बारे में नियम; विपत्ति-काल में ब्राह्मण की वैश्य - वृत्ति; कतिपय वस्तुओं के क्रय-विक्रय के निषेध के बारे में नियम; चोरी, ब्राह्मण या किसी की हत्या, भ्रूण हत्या, व्यभिचार ( मातृगमन, स्वसृगमन आदि), सुरापान आदि गम्भीर पाप ( पतनीय), अन्य पाप उतने गम्भीर नहीं हैं, यद्यपि उनसे कर्ता अपवित्र हो ही जाता है; आत्मा, ब्रह्म, नैतिक प्रश्न- सम्बन्धी अपराध ( जिनसे क्रोध, लोभ, कपट ऐसे दोष उत्पन्न होते हैं) आदि आध्यात्मिक प्रश्नों का विवेचन; वे
गुण जिनके द्वारा परम ध्येय की प्राप्ति होती है, यथा क्रोध-लोभादि से छुटकारा, सचाई, शान्ति की प्राप्ति; क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं नारी की हत्या का प्रतिकार ब्रह्महत्या, आत्रेयी नारी हत्या, गुरु या श्रोत्रिय की हत्या के लिए प्रायश्चित्त गुरु-शय्या को अपवित्र करने, सुरापान, सोने की चोरी के लिए प्रायश्चित्त कतिपय पक्षियों, गायों, बैलों को मारने पर, जिन्हें गाली नहीं देनी चाहिए उन्हें गाली देने पर शूद्र नारी के साथ संभोग करने पर, निषिद्ध भोजन एवं पेय सेवन करने पर प्रायश्चित्त; बारह रातों तक कृच्छू के लिए नियम; चोरी क्या है, पतित गुरु एवं माता के साथ क्या व्यवहार होना चाहिए; गुरु-शय्या अपवित्र करने पर प्रायश्चित्त के लिए कतिपय मत; पर
सेक्रेड बुक आफ दि ईस्ट (S. B. E. ), जिल्द २ ।
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३- धर्म ०
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