Book Title: Chaupannamahapurischariyam
Author(s): Shilankacharya, Amrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्रस्तावना
३७
प्रतिके आकार-प्रकारका ख्याल आ सके इस दृष्टि से इसके पृ. ३२१-२२-२३ की एक प्रतिकृति भी इस ग्रन्यमें दी गई है। इन दो प्रतियों के अलावा अन्य मौलिक हस्तप्रत नहीं मिलती। जो मिलती भी हैं वे इन्हीं दो के आधारपर की गई नकलें ही हैं ।
संशोधन
उपर्युक्त दो प्रतियों में से 'सू' संज्ञक प्रतिका पाठ मूलमें रखा है और जहाँ जहाँ 'सू' का पाठ अशुद्धि आदिको दृष्टिसे उपादेय प्रतीत नहीं हुआ वहाँ 'जे'का पाठ मूलमें रखकर 'ख' का पाठ नीचे टिप्पणीमें दे दिया है । इसके अतिरिक्त जहाँ जहाँ 'सू' का पाठ अभ्यासीके लिए भ्रान्तिजनक प्रतीत हुआ वहाँ भी 'जे' का सामान्यरूपसे प्रचलित शब्दवाला पाठभेद मूलमें रखकर 'सू' के पाठका नीचे टिप्पणी में निर्देश किया है । उदाहरणार्थ 'सू' में आनेवाले जयो ( यतः ), सोख, मोखके बदले 'जे' के जओ, सोक्ख, मोक्ख शब्द मूलमें रखे हैं । ऐसे पाठ केवल पाँच-छः स्थानों पर ही आये हैं । जहाँ-जहाँ शब्द अथवा अक्षर योग्य नहीं लगे वहाँ उस शब्द अथवा अक्षरको मूलमें ही रखकर ( ) ऐसे कोष्ठक में शुद्ध प्रतीत होनेवाला पाठ रखा है । दोनोंमेंसे एक भी प्रतिमें जहाँ पाठ न मिलता हो अथवा वह खण्डित प्रतीत होता हो वहाँ [ ] ऐसे कोष्ठक में योग्य पाठकी कल्पना करके वह रखा है । ऐसा होने पर भी दोनों प्रतियोंमें निर्दिष्ट पाठके स्थान में शुद्ध पाठ दूसरा ही ज्ञात हुआ हो वहाँ ज्ञात शुद्ध पाठ मूलमें रखकर दोनों प्रतियोंके समान पाठका अथवा अलग-अलग पाठका उल्लेख नीचे टिप्पणी में किया गया है। मतलब कि जिस टिप्पणीमें 'सू' और 'जे' दोनोंका पाठभेद साथ ही दिया गया है वह टिप्पणी जिस पाठ पर होगी वह पाठ स्वयं इस ग्रन्थके सम्पादक द्वारा सुधारा गया है ऐसा समझना चाहिए। जहाँ केवल एक ही प्रतिका पाठ मिला हो और वह भी पत्रके ऊपर-नीचेका भाग नष्ट होनेसे स्खण्डित हो गया हो वहाँ, यदि अक्षरोकी संख्या अवगत हो सकी हो तो, इस तरह स्थान रिक्त रखा है, और अक्षरसंख्या अवगत न हो सकी हो ऐसे नष्ट पाठोंके स्थान पर.... इस प्रकार रिक्त स्थान रखा है। इन दोनों प्रकार के रिक्तस्थानोंके पाठके लिए जहाँ अनुमान हो सका है वहाँ रिक्त स्थान रखकर उसके पश्चात् ) ऐसे कोष्ठक में संभावित पाठका निर्देश किया है, जब कि शंकित पाठ प्रश्नचिह्नयुक्त कोष्ठक में रखा है। 'कणयरह' (पृ. २५४ ) के बदले 'कणयाह' (पृ. २५५ ) शब्द भी प्रतियों में बराबर मिलता है, अतः उन-उन स्थानोंमें वे शब्द ज्योंके त्यों रखे हैं । यद्यपि लिपिदोष के कारण खड़ी पाई '' के स्थानमें 'र' की कल्पना की जा सकती है ( 'कणयाह' के बदले 'कायरह' किया जा सकता है), फिर भी दोनोमेंसे किसी भी एक प्रति में 'र' के बदले '' ऐसी खड़ी पाई नहीं मिलती तथा 'पउमचरिय' जैसे अतिप्राचीन ग्रन्थमें अनेक स्थानों पर एक ही व्यक्तिके एकाधिक नाम मिलते हैं; अतएव ग्रन्थकारको यहाँ भी दोनों नाम स्वीकार्य होंगे ऐसा मानकर दोनों ही नाम जैसेके तैसे रखे हैं । इसी प्रकार 'जहाई वृग वैसाह' जैसे हिज्जोंके रूप दोनों ही प्रतियों में एकाध स्थान पर समान मिलते हैं। सम्भवतः ग्रन्थकारने स्वयं ही ऐसा रूप लिखा हो यह समझकर हमने सुधारकर 'जहारुह बिग व साह' रूप सूचित नहीं किया है।
'सू' संज्ञक प्रतिको मुख्य रखकर उसकी अक्षरशः वाचना मूलमें रखनेसे उसमें आनेवाले अनुस्वारोंके परसवर्ण. अनुनासिक ज्योंके त्यों रखे हैं । इसमें जहाँ-जहाँ अनुस्वारका परसवर्ण अनुनासिक है वहाँ 'जे' संज्ञक प्रतिमें वैसा नहीं है; वहाँ तो सर्वत्र अनुस्वार ही मिलता है। 'सू' संज्ञक प्रतिमें पदान्त अनुस्वारका भी पश्चाद्वर्ती शब्दके आद्य अक्षरके वर्गका अनुनासिक रूप अनेक स्थानों पर मिलता है; जैसे कि, मेत्तं पि = मेत्तम्पि (पृ. ६९ टि. १०), तेहिं वि = तेहिम्वि (पृ. ६४, टि. ५ ), चित्तं व= चित्तम्व (पृ. ५८, टि. ७), तेहिं ति = तेहिन्ति (पृ. ५३, टि. १०), पत्तयालं वि = पत्तयालन्ति (पृ. ६, टि. १५), सएणं पि = सएणम्पि (पृ. ५२, टि. १७ ) इत्यादि । ऐसे पाठ 'सू' प्रतिके होने पर भी पाठकके मनमें भ्रम पैदा न करे
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