Book Title: Chaupannamahapurischariyam
Author(s): Shilankacharya, Amrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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५४ वद्धमाणसामिपरियं । - संजुज्जइ हिरवाएण भत्तिजुत्तो गुणेण जो जेण । अणलक्खिओ वि गुरुणा तं चेय गुणं पउंजेज्ज ॥ ३७४ ॥ दोसा ण जत्य जायंति होति हियइच्छिया गुणा जत्थ । अणणुण्णाएण वि तं गुरुम्मि मुवि(यि) होइ करणीय" ॥३७५॥
इय भणिए वणियमुएण वेज्जतणओ पयड्ढिउच्छाहो । अल्लीणो पडिमासंठियम्मि गुरुणो तरुतलम्मि ॥ ३७६ ॥
तओ ओणामेऊण उभयपासेसु तरुणो साहाओ, संदामिऊण रज्जूए कीलियाओ परंतेसु, णिबद्धाओ साहासु । विमुक्काओ जहावट्टियं साहाओ। ताहिं च गच्छमाणाहिं समुक्खयाओ कीलियाओ । णीसल्लीकओ जयगुरू। णिग(ग्ग)च्छन्ते य सल्ले जमण्णभवन्तरावज्जियं वेयणीयं तस्सेस विमुक्को भयवया गंभीरतारमहुरो दीहहुंकारो। ण तहा णिक्खमंते हि मुणिवइणो तिव्ववेयणा जाया। जह कड्ढियम्मि सल्ले--(पय)ट्टिया गरु[य]या वियणा ॥३७७॥
पीढ(ड) पवडढमाणेण तेण चिरसंठिई ण परिगणिया। णिहसे वि खलयको णिययमासयं दुकरं कुणइ ॥३७८॥
एवं च णिकडिढए सवणंतराओ सल्लम्मि तेण वणि---- ----ण अब्भंगणापुव्वयं पडियरंतेण पउणीकया पहारा, जायमणहं विगयवेयणावेयं सवणजुवलयं ति । तओ गया दो वि वणिय-वेजा णमिऊण जयगुरुं जहट्ठाणेनु। तेणावि गोवे -------(ण तइया समुप्पा )इयतिव्ववियणोवसग्गेण णिबद्धं महातमापुढवीए आउयं ति।
इय कयवयकप्पुप्पाइयावग्गमग्गो, सहियणर-तिरिक्खाणेय-दिव्योवसग्गो।
गहियगरुयऽभग्गाभिग्गहे संगयप्पा, विहरइ महिवेढं तिव्वसत्तो महप्पा ॥ ३७९ ॥ इय वद्धमाणसामिचरिए गोवालाइयं गोवालपज्जवसाणमुवसग्गविहाणं समत्तं [१३] ॥
एवं च विहुयगुरुयोवसग्गोवलेवो कणयपिंडो व्व णिययपहापरिक्खेवखइयदिसामंडलो अण्णया य संपत्तो जंभियाहिहाणं गाम । तत्थ परिणिबिडविडवुब्भिज्जन्तपल्लवं पल्लवंतरुव्वेल्लमाणुल्लसियकुमुमणियरं कुसुमणियरुच्छलन्तसुरहिपरिमलामोयं आमोयमत्तालिमिलन्तकयकलरवं सुहम वालियाणदीतीरं ति । तहिं च दढवियडथिरयोरुधुंधणिबद्धसाहम्मि साहासमालिद्धकिसलयदलन्तरुत्तरन्तपस्यपयरम्मि पश्यपयरारुणविसट्टसरसमयरंदम्मि मयरंदणियरोवरंजियधरामडलम्मि महासालतरुतलम्मि संठिओ पडिमाए।
णवरि य णिरुद्धसयलिंदियत्थपसरस्स णिप्पयंपस्स । दुजयकम्ममहामोहवूहणिन्भेयणसहस्स ॥ ३८० ।। हिययंतदुरज्झवसुल्लसंतगुरुमुक्कझाणपसरस्स । छउमत्थवीयरायं संपत्तोमुहुत्तस्स ॥३८१॥ घणघाइकम्मविहडणसंपाडियणियजहिच्छसिद्धस्स । लोया-ऽलोउन्भासणपदीवमसमप्पहावस्स ॥ ३८२॥ उप्पण्णं सयलतिलोयसिहभावाणुभावसन्भावं । संसारुच्छेयकरस्स केवलं केवलप्पाणो ॥ ३८३॥ इय जं गुरुयरदुक्करतवोविहाणस्स जायइ जयम्मि । फलमसमं संपत्तं जयगुरुणो गुरुगुणग्यवियं ॥ ३८४ ॥
एत्यावसरम्मि य चलियासणप्पओएण वियाणियजिणणा[ग]लंभो मोत्तूण णिययमासणं गंतूण जिणाभिमुहं सत्तपयाई धरायलमिलंतजाणुमंडलो काऊण पणामं किं काउं पयत्तो पुरंदरो?
पक्खिप्पड करकमलुल्लसन्तणहकिरणकेसरकराला । तक्खणमुल्लूरियसुरदुमुत्थकुसुमंजली सहसा ॥ ३८५॥ काऊण कणिरकंकणमुहलभुयामंडलं णिडालम्मि । करकमलं ललिउव्वेल्लिरंगुलीदलसणाहिल्लं ॥३८६॥ कीरइ णिव्वडिउब्भडघडन्तसंकिण्णवण्णसंपण्णो । वज्जरियभितरभत्तिणिभरो जयजयकारो ॥ ३८७ ॥ इय जाणिऊण गुरुणो णाणुप्पत्ति पयड्ढियामोओ। जाओ तयणु वियम्भन्तपुलयपडलो तियसणाहो ॥ ३८८॥
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