Book Title: Chaupannamahapurischariyam
Author(s): Shilankacharya, Amrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 394
________________ ५४ वद्धमाणसामिचरियं । ३११ एवं च सोऊण मेहकुमारजंपियं भणिउं पयत्तो अभयकुमारो जहा-"सुंदरं तुमए जंपियं जइ जह चिय भणियं वह च्चिय पालिउं तीरइ । कुओ ? जेण विसमो जोवणारम्भो, दुजओ मयरकेउपसरो, दुद्धरा विसयजुत्ता इंदियतुरंगमा, सम्मोहैकारया महिलाविलासा, दुरज्झवसाया पन्चज्जा, दुप्परियल्ला वयविसेसा, दुरहियासा परीसहा, अणिवारियप्पसरा कसाया, अओ भणामि 'दुक्खेण णिबाहेउं तीरइ' । अपरिपक्ककसायस्स य जंतुणो पन्चज्जुज्जमो लाहवावसाणो णंदिसेणस्स विय संजायइ" त्ति । मेहकुमारेण भणियं-को सो गंदिसेणो? । अभयकुमारेण भणियं आसि इह अम्ह सहोयरो शंदिसेणो णाम कुमारो । सो कयाइ समुबिग्गसंसारवासो पन्चजाकरणुज्जयमती वारिओ सुहि-मित्त-बंधुवग्गेहि, भणिओ य जहा-दुक्करा पञ्चजाकिरिया, जोव्वणओ य समुन्भूयसत्ती मयरद्धओ, उम्मिंठो य मयणवारणो अहिलसइ पमयावणमभिद्दवेउं ति । इय जंपियात्रसाणम्मि य भणियमिमेण-"एवमेयं, किंतु तहा जइस्से हं जहा चक्खुगोयरवहे वि मह महिलायणो ण संठाइ ति । कहं ? ईसि पि विणासो होज्ज जस्स संगाहि सो ण तं कुणइ । को णाम कालकूडं कवलइ कवलेहिं जीयत्थी ? ॥ ५१५॥ सच्चं पमया पमयस्स कारणं पउरपञ्चवायस्स । को होज विवेई दूरओ ण जो तं परिचयइ ? ॥ ५१६ ॥ पञ्चक्खं चिय सुन्वन्ति राम-रामण-णलाइणरणाहा । संपत्ता वसणसयाई रमणिवासंगवामूढा ॥ ५१७॥ ता उज्झिऊण जो हं णियवरविलयायणं कुसलकज्जे । अब्भुजमामि सो कहमण्णा पुलएमि परमहिला"?॥ ५१८ ॥ इय जंपिऊण वड्ढन्तहिययपरिओसजणियरोमंचो । पव्वज्जमब्भु[व]गओ जिणवरभणिएण मग्गेण ॥ ५१९ ॥ तओ गिहिऊँण जिणपवयणविहीए सामण्णं, अहिज्जियसयलमुत्तत्थकिरियाकलावो परिचइऊण वसिमं जणवयं पविट्ठो अणेयताल-तमाल-सरल-देवदारु-पुण्णायाइसंकिण्णं महारणं । जं च आहासन्तं व परपुट्ठाविरुएहि, उग्गायन्तं पिच रुंटतभसलवंद्रहिं, पणच्चिरं पिव पवणुव्वेल्लसाहाभुयाहि, पमुइयं पिव विविहविहयऽट्टहासेहिं, अवि य कहिचि संचरंतवारमिंदरुंदजूहयं, कर्हिचि संघडन्तघोरपुंल्लि-पील(लुओहयं । कहिचि संठिउहियन्तरुट्ठदुट्ठसीहयं, कहिचि णिब्भरोरसन्तभल्लुयासणाहयं ॥ ५२० ॥ कहिचि मच्छरागयच्छहल्लरुद्धमग्गयं, कर्हिचि साहिलंघणुच्छलन्तवाणरंगयं । कहिचि दाढिघोणघायजजरोरुकंदर, कहिचि णिज्झरन्तणीरधारसहि(दि)रं [वणं] ॥ ५२१॥ ति किंचकत्थइ पुलिंदसुंदरिपउत्तकीलाविसेसरमियाई । साहइ विसम-समुव्वेल्लपल्लवुत्थरणकयलक्खं ।। ५२२ ॥ कत्थइ मैंइंदणिदलियमलियकरिकुम्भमोत्तियप्पयरं । उव्वहइ वणसिरी वरविसट्टकुसुमोचयारं व ॥ ५२३ ।। कत्थइ णिलिन्तकरिकण्णतालणुच्छलियभमरविरुएहिं । कहइ व पाणणिरयाण एरिस चेय होइ गती ॥ ५२४ ।। इय तं सव्वत्तो चिय गुरुपायवविविहवणयरोइण्णं । अल्लियइ गदिसेणो तवोविहाणं व वणगहणं ॥ ५२५ ॥ तहिं च संचरन्तेण सचविओ णाइदूरप्पएससंठिओ विमलकलहोयधवलुल्लसन्तसिलाभित्तित्थलो भित्तित्थलुच्छलन्तकयकलरवजलणिज्झरो णिज्झरेतडपरूडुब्बिडिमलयाहरासीणकिण्णरमिहुणो किण्णरमिहुणमणहरुग्गीयायण्णणणिसण्णदिसिबहुगणो हिमवंतो णाम गिरिवरो । दट्ठणं च तं अञ्चन्तविचित्तत्तणसंपत्तपरमपयरिसं एकंतरुइरत्तणओ समारूढो तत्येकं कडयप्पएसं। तहिं च सुरसरियायडवियडकप्फाडप्पएसेसु हियउल्लसंतवेरग्गवासणाविसेसो” समारदऽद्धमासाइदु १ एवं जे । २ यहुत्ता स। ३ हकम्मा महिजे। ४ दुरहिगमा सू । ५ दुक्खेहि सू। ६ लाइणो जे । ७ °कूलं सू। ८ महिलं जे । ज्जमुवगो सो] जिण सु । १. गहिऊण जिणवयणजे । ११°पुल्लि-पिल्लओं सू । १२ धारसंदिरं ति स । १३ लवत्थुरण जे । ११ मयंदजे । १५ इलं सू । १६ रव सू। १७ सो परिचत्त सू। Jain Education International For Private & Personal use only . www.jainelibrary.org

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