Book Title: Chaupannamahapurischariyam
Author(s): Shilankacharya, Amrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्रस्तावना
प
होगा, ऐसा अनुमान सर्वथा असंगत नहीं लगता। इन दोनोंकी समकालीनताका और अभिन्नताका मुख्य आधार दोनों ग्रन्थोंके रचनासमयको ही कहा जा सकता है, किन्तु वस्तुतः वे दोनों भिन्न ही हैं। 'विमलांक' विमलसूरि, 'भवविरहांक' हरिभद्रसूरि तथा 'दाक्षिण्यचिह्न' उद्योतनसूरि इत्यादि विद्वानोंने अपने अपरनाम सूचित किये ही हैं, यद्यपि उनके समकालीन उस-उस नामके अन्य विद्वान् ज्ञात नहीं हो सके हैं। यहाँ तो हमें इतना ही सूचित करना है कि आचारांगटीकाकार और चउप्पन्नमहापुरिसचरियके कर्ता शीलाचार्य अपने अपरनाम भिन्न-भिन्न सूचित करते हैं, और इसीलिए वे समकालीन होने पर भी एक नहीं हैं।
पुरातत्त्वाचार्य मुनीश्री जिनविजयजीने जीतकल्पसूत्रकी अपनी प्रस्तावनामें डॉ. फ्लीट', डॉ. पिटर्सन, डॉ. लॉयमान तथा डॉ. हर्मन जेकोबीके मन्तव्योंका अनुवाद करते हुए कुवलयमालाकार उद्द्योतनसूरिके गुरु तत्त्वाचार्य एवं आचारांग-सूत्रकृतांगके वृत्तिकार शीलाचार्य-तत्त्वादित्य एक ही हैं ऐसी कल्पना की है। इसी प्रकार इसी प्रस्तावनाके अन्तमें (परिशिष्टमें) आचारांग सूत्रकृतांगके टीकाकार शीलाचार्य एवं प्रस्तुत ग्रन्थ चउप्पन्नमहापुरिसचरियके कर्ता एक हैं ऐसा भी अनुमान किया है। उन्हें प्रस्तुत ग्रन्थकी प्रति उस समय प्राप्त नहीं हुई थी, अतः ऐसी कल्पना करना उनके लिए स्वाभाविक था; परन्तु मैंने उपर असंदिग्धरूपसे सूचित किया ही है कि समकालीन होने पर भी ये दोनों शीलाचार्य एक नहीं किन्तु भिन्न हैं।
आगमोद्धारक आचार्यश्री सागरानन्दसूरिजीने विशेषावश्यकभाष्यवृत्तिकी प्रस्तावनामें आचारांगके टीकाकार शीलाचार्यके तत्वादित्य नामको (जो सभी प्रतियोंमें उपलब्ध होता है) कविकृत मानकर उन्हें तथा चउप्पन्नके कर्ता शीलाचार्यको अभिन्न बतलाया है, किन्तु यह विधान संगत प्रतीत नहीं होता । दोनों आचार्योंकी भिन्नताका निषेध करनेके लिये तत्त्वाचार्य के नामके लिए 'कविकृत' विशेषणका प्रयोग करके उसे प्रक्षिप्त माननेका उनका आशय हो या न हो, परन्तु उससे इतना तो फलित होता ही है कि उन्हें आचारांग-सूत्रकृतांगवृत्तिकार शीलाचार्यका दूसरा नाम तत्त्वादित्य स्वीकार्य नहीं है। उनके इस विधानसे कोई ऐसा भी समझ सकता है कि वह नाम स्वयं ग्रन्थकारने नहीं लिखा है ऐसा श्री सागरान्दसूरिजीका मानना है । परन्तु जो नाम आचारांगकी उपलब्ध प्राचीनतम प्रतियों में निरपवाद रूपसे उपलब्ध होता है उसका बिना किसी आधारके निषेध करना उचित नहीं है। किसी भी विद्वान्ने अन्य विद्वान्के ग्रन्थमें अपरनाम कल्पित करके जोड़ दिया हो ऐसा कभी नहीं हुआ। इतना ही नहीं, ऐसा दुस्साहस किसने और किस हेतुसे किया होगा इसका उत्तर जिसका कोई आधार नहीं ऐसे 'कविकृत' शब्दप्रयोगसे नहीं मिलता। मुनिश्री जिनविजयजीको तो चउप्पन्नमहापुरिसचरियकी प्रति नहीं मिली थी, अतः उन्होंने दोनोंके एकत्वका अनुमान किया था; परन्तु श्री सागरानन्दसूरिजीको तो चउप्पनके कर्ता शीलाचार्यका 'विमलमति' नाम मिला है, फीर भी दोनोंकी भिन्नताके बदले एकके अपरनामको व्यर्थ मानकर उनका एकीभाव उन्होंने क्यों किया होगा यह हमारी समझमें नहीं आता ।
श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाईने भी जीतकल्पसूत्रकी उपर्युक्त प्रस्तावनाका अनुसरण करके आचारांगके टीकाकार तथा चउप्पन्नके रचयिताको एक माना है । इसके विषयमें तो कुछ विशेष लिखनेका नहीं है। किंतु जीतकल्पसूत्रकी प्रस्तावनामें कोट्याचार्य शीलांक, अणहिल्लपुरके स्थापक वनराजके विद्यागुरु शीलगुणसूरि, आचारांगके टीकाकार शीलाचार्य और चउप्पन्नके रचयिता शीलाचार्यके एक होनेके जो अनिश्चित अनुमान किये हैं (जो उसी प्रस्तावनामें किये गये परिशिष्टके आधार पर
१ डॉ. फ्लीटने आचारांगसूत्रटीकाके रचना-स्थान 'गंभूता' को खम्भात कहा है, किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता । महेसाना-पाटन रेल-मार्ग पर आनेवाले धीणोज स्टेशनसे तीन-चार कोस दूर आये हुए गांभू नामक गाँवका प्राचीन नाम गंभूता था । इसके सूचक प्राचीन प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं ।
२ देखो ‘जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' पृ. १८०-८१ ।
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