Book Title: Chaupannamahapurischariyam
Author(s): Shilankacharya, Amrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७.
८.
उपमहापुरिसवरिय
शीलांक
जीवसमासप्रकरणवृत्ति पूजाविधिप्रकरण (?)
शीलाचार्य (निर्देश : बृहट्टिप्पनिका )
अज्ञात अप्राप्य देशीशब्दकोश अथवा देशीशब्दकोशकी वृत्ति शीलांक ( निर्देश : हेमचन्द्र ) शीलांक ( निर्देश प्रभावक चरित्र )
एकादशांगवृत्ति
इनके अतिरिक्त विनयचन्द्रीय (विक्रमकी १३ वीं शती) काव्यशिक्षामें शीलांकका निर्देश है ।
१. इनमें विशेषावश्यकभाष्यके टीकाकार कोट्याचार्यका नाम शीलांक भी है - ऐसा विधान करनेवाले विद्वानोंमेंसे सबने इस विधानके आधारके रूपमें प्रभावकचरित्रके अतिरिक्त दूसरे किसी ग्रन्थका प्रमाण नहीं दिया। उसमें विशेषावश्यकभाष्यकी वृत्तिके रचयिता शीलांकको ही एकादशांगवृत्तिकार भी कहा है। उसमें ऐसा भी उल्लेख आता है कि ग्यारह अंगोंकी वृत्तियोंमेंसे केवल आचारांग एवं सूत्रकृतांगकी वृत्तियों के अतिरिक्त शेष नौ अंगोंकी वृत्तियोंके नष्ट होने पर शासनदेवताने अभयदेवसूरि को उन अंगों की टीका लिखनेके लिए प्रेरित किया । प्रभावकचरित्रकारका शासनदेवतावाला यह निर्देश या तो किसी निर्मूल दन्तकथाके ऊपर आधारित है या फिर स्वयं उनकी अपनी ही कल्पना है । अभयदेवसूरिके समयमें शीलांक अथवा अन्य किसी विद्वान्की अवशिष्ट नौ अंगोंपर वृत्ति होती तो “अर्थरूपी रत्नके साररूप, देवता द्वारा अधिष्ठित तथा विद्या एवं क्रियासे बलवान् होने पर भी किसी पूर्वपुरुषने जिसका उन्मुद्रण ( व्याख्या या टीका) नहीं किया वैसे स्थानांगका व्याख्यामूलक अनुयोग आरम्भ किया जाता है।" इस प्रकार अभयदेवसूरि स्वयं अपनी स्थानांगवृत्तिके प्रारम्भमें न लिखते । इससे तो यही सिद्ध होता है कि शीलांक एकादशांगवृत्तिकार नहीं थे, अपितु आचारांग एवं सूत्रकृतांगके ही वृत्तिकार थे । अतएव प्रभावकचरित्रकारका उपर्युक्त उल्लेख निर्मूल प्रमाणित होता हो, तो प्रभावकचरित्र में इसी स्थानपर शीलांकका जो दूसरा नाम कोट्याचार्य दिया है वह भी विशेष सार्थक प्रतीत नहीं होता। कहनेका तात्पर्य यह है कि विशेषावश्यकभाष्यकी वृत्तिके रचयिता कोट्याचार्यका दूसरा नाम शीलांक नहीं है । पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्रीसागरानन्दसूरिजी ने भी स्वसम्पादित कोट्याचार्यकृत विशेषावश्यक भाष्यकी वृत्तिकी प्रस्तावनामें यह बात स्पष्ट की है।
२. आचारांग सूत्रकृतांगके वृत्तिकार शीलाचार्यने अपने नामका निर्देश आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्धकी वृत्ति, द्वितीय श्रुतस्कन्धकी वृत्ति तथा सूत्रकृतांगकी वृत्तिके अन्तमें किया है। इन तीनों स्थानों पर आचार्यने अपना नाम शीलाचार्य लिखा है तथा आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्धकी वृत्तिके अंतमें 'निर्वृतिकुलीन - शीलाचार्येण तत्त्वादित्यापरनाम्ना वाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति' लिखकर अपना दूसरा नाम तत्त्वादित्य भी सूचित किया है । गुप्त या शकसंवत् के विषयमें निश्चय न हो सकनेसे तथा दूसरे विशेष प्रमाणों के अभाव में भिन्न-भिन्न समयके आचार्योंको एक ही व्यक्ति माननेके अनुमान होते रहे हैं, परन्तु अन्तिम निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है । आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्धकी टीकाके अन्तमें ग्रन्थकारने रचना समय गुप्त संवत् ७७२ लिखा है, जबकि द्वितीय श्रुतस्कंधकी टीकाके अन्त में शकसंवत् ७८४ और प्रत्यन्तर में ७९८ लिखा है । 'यहाँ गुप्त संवत् एवं शकसंवत्को एक मानकर शकको गुप्त लिखा गया है वस्तुतः दोनों संवत् शकसंवत् के अर्थमें होने चाहिए' - ऐसी डॉ. फ्लीट आदि विद्वानोंकी कल्पना युक्तिसंगत प्रतीत होती है । इस दृष्टि से यदि प्रथम श्रुतस्कन्धकी वृत्तिके अन्तमें दिये गये गुप्तसंवत्को शकसंवत् ही मान लें, तो वि. सं. ९०७ में प्रथम श्रुतस्कन्धकी और वि. सं. ९१९ में द्वितीय श्रुतस्कन्धकी टीका लिखी गई होगी । बृहट्टिप्पनिकामें चउष्पन्नमहापुरिसचरियका रचनासमय वि. सं. ९२५ दिया है। इस तरह दोनों शीलाचार्योंने, समकालीन होनेके कारण, अपनी अलग-अलग पहचानके लिए दूसरा नाम भी दिया १ " विविधार्थं रत्नसारस्य, देवताधिष्ठितस्य, विद्या- क्रियाबलवतापि पूर्वपुरुषेण कुतोऽपि कारणादनुन्मुद्रितस्य स्थानाशस्योन्मुद्रणमिवानुयोगः प्रारभ्यते । " स्थानांगटीकाके प्रारम्भमें ।
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