Book Title: Chaupannamahapurischariyam
Author(s): Shilankacharya, Amrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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५३ पाससामिचरियं।
२६९ जह य पाति भवसयपरिपत्त गदुल्लहं खु मगुयत्तं । अप्पपरिग्गहयलहुयकम्मणुहावेण मणुयत्तं ॥ ३२२ ॥ जह य सुदुक्करतवचरणकरणसंजणियथोवकम्मंसा । सयलजियलोयदुलहं जीवा गच्छंति मुरलोयं ॥ ३२३ । पावंति जह य दुलहं दंसण-णाणप्पहाणुहाविल्लं । सयलसुहाण णिहाणं जयम्मि जिणभासियं धम्मं ॥ ३२४ ॥ जह परियड्ढियझाणम्गिदड्ढकम्मिंधणोहमाहप्पं । केवलणाणं पावेंति पुलइयाऽलोय लोयंतं ॥ ३२५॥ जह य तियसुद्धणीसेसबहलमलपडललेवपम्मुका। असरिसमुहसंभोयं जीवा पाति णिव्वाणं ।। ३२६॥ इय सयलसत्तसंसारकॉरणुद्दलणपचलकहाए । परिसा णिचलणिक्खित्तलोयणा सहइ लिहिय व्व ॥ ३२७॥
एवं च सयलजंतुसंताणतारणसहम्मि साहिए भयचया धम्मे तओ मुणिऊणासारयं संसारसरुवस्स परिचत्तसयलसंगा पवण्णा केइ समणत्तणं, अण्णे सावगत्तणं ति । कहावसाणम्मि य थोउं पयत्तो सुरवई, कहं ?
पणमामि मुक्कसंसारवासवासंग! पासजिणयंद !। अब्भुद्धारियभीमयरभवभउब्भन्तभव्वजण ! ॥ ३२८॥
खरणहरकढिणकुलिसग्गभीसणो दढकरालदाढालो। तुम्ह पणामेण कमागयं पि णऽकमइ मियणाहो ।। ३२९ ।। वियडकबोलोयल्लियबहुलियमयसलिलसित्तपेरन्तो । पणिवइए तुह जयगुरु ! गऽल्लियइ समागओ वि गओ ॥ ३३० ॥
पजलियबहलजालाकलावकवलियदियन्तराहोओ। ण डहइ तुहवयणजलाहिसित्तमणुयं वणदवग्गी ॥ ३३१॥ उन्भडयरफणफुक्कारमारुउच्छित्तविसकणुक्केरो। कुवियागओ वि•ण डसइ मणुयं तुह गोत्तमंतेण ।। ३३२॥ आयण्णायड्ढियदढपयंडकोयंडबाणदुप्पेच्छो । णऽल्लियइ णरं तुह पंणिहिपडिहओ तकरसमूहो ॥ ३३३॥ तुह गोत्तकित्तणुइलियदीहदढणियलबंधपम्मुको। काराहराओ पुरिसो पावइ हियइच्छियं ठाणं ॥ ३३४ ॥ णिद्दलियजाणवत्तम्मि णीरलहरीहिं पेल्लिओ पुरिसो। तुह पणइतरण्डबलग्गणियतणू तरइ जेलणिहिणो ॥ ३३५ ।। दढदाढकरालविडंवियाणणं सिहिणिहच्छिदुप्पेच्छं । छायं पि पिसायउलं ण छलइ तुह णाममेतेण ॥ ३३६॥ तडितरलसच्छहुच्छलियविसमनिसियासिभासुरिल्लम्मि । समरम्मि जयं पावइ तुह पणइरो लहुं सुहडो॥ ३३७ ।।
वियलन्तपूयपब्भारसडियकर-चरण-चुड्डनासो वि । रोगाउ मुच्चइ गरो तुम्हपणामामियरसेण ॥ ३३८ ॥ इय हरि-करि-सिहि-फणि-चोर-[कार]-जलगिहि-पिसाय-रण-रोगं । ण णरस्स जायइ भयं तुह चलणपणामणिरयस्स ॥३३९॥
एवमाइयं च काऊण बहुप्पयारं भयवओ थुइं असेसभुरगणसमेओ सुरवई गो णिययं ठाणं । गर-तिरिया वि संठि(संपट्टि या सट्टाणेसु ।
भयवं पि अहाविहारं विहरमाणो संपत्तो सम्मेयगिरिवरं । समारूढो तस्स सिहरं । बहुपडिपुण्णम्मि णिययाउए सियसावणऽटमीए विसाहाहिं संपत्तो सयलसुहावासं णेवाणं ति । कया जहक्कमं सुरसमूहेहि णिवाणमहिमा। एत्थ परिहाइ इमं चरियं सिरिपासजिणवरिंदस्स । णिसुयन्ताण भणेन्ताग कुणइ दुक्खक्खयमनस्सं ॥३४० ॥ "इय सीलंकविरइए महापुरिसचरिए सिरिपाससामिचरियं परिसमत्तं ।। ५३ ॥
[ग्रन्थानम् १०७००।]
१ दुलह ससू । २ 'यालोयग्गं जे । ३ काणणुस । ४ लनिव्वत्तलो जे । ५ तु सू । ६ मयणाहो जे । . कवोलयलो. लियबहु जे। ८ पणइप जे । ९ जलहीओ जे । '. बहुगम सू । ११ सुरवरेहि जे । १२ इय सीलंकविरइए सयल[?)पुरिसाण
कित्तणाधयिए । एन्थ समपद चरिय मुणिको सिरिपास गाहस्स ॥ इति महापुरिसचरिए पासणाहस्स चरिय समतं ॥ सू । । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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