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अनेकान्त
राज्य कार्य संभाले । श्रीमान के निर्देशन में सारी शासन महावीर इतनी दर से मौन थे । वे सारी बातों को व्यवस्था चल । वह अपनी भावी महारानी को भी देखना बड़े ध्यान से सुन रहे थे और स्थिति को गम्भीरता को भी चाहती है और उसके लिये जितना भी त्याग वह कर सकनी समझ रहे थे। उनके चहरे पर न तो प्रसन्नता थी और न है करने को तैयार है।
विषाद । वे अपनी सहज मुद्रा में थे । जब सब चुप हो गये जन प्रतिनिधि ने हाथ जोड़ कर पहिले अभिवादन तो वे उस अप्रिय एव अाह्य शान्ति को भग करते किया और बड़ी नम्रता से कहा कि आपके सारे राज्य की हुये बोलेजनता ने मुझे प्रतिनिधि नियुक्र कर इसीलिये श्राप की
महाराज, माता जी, प्रधान मंत्री एवं जन प्रतिनिधि, मैं सेवा में भेजा है कि में राजकुमार से शासन की बागडोर
आप सब का आभारी हूँ जिन्मोंने अपने विचारों के प्रकट अपने हाथ में लेने एवं विवाह करने के लिये उनकी ओर
करने के पश्चात मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया। से निवेदन करू। राजकुमार । सारी प्रजा विवाहोत्यव में
महाराज चाहते तो वे मुझे अादेश भी दे पाते थे । माता सम्मिलित होने को अधीर हो रही है। सब प्रकार से
का प्यार मुझे सदा स्मरण रहेगा। संसार में एमी माताए विवाह की तैयारी हो चुकी है केवल आपकी स्वीकृति मात्र
मिलना कठिन है। आपने जो कुछ भी कहा वह अक्षरशः की देरी है।
सत्य है लेकिन इसी से समस्या नहीं मुलझ सकती । महामहागज सिद्धार्थ ने फिर कहा, "राजकुमार ! में तुम्हारी राज एवं माता जी को मुझे युवराज बनाने की जो चिन्ता भावनाओं का सम्मान करता हूँ। मुझे बडा गर्ग है कि है उसे भी मैं खूब जानता है । विवाह करके घर गृहस्थी राजकुमार के हृदय में पीडित, दलित एवं अपमानित एवं राज्य कार्य चलाने की उपयोगिता में भी मुझे कम व्यक्तियों के लिये दर्द है। उनकी सेवा के भाव हैं । मैं भी विश्वास नहीं है। फिर भी मैं ही तो श्रापका एक मात्र पुत्र चाहता है कि उनका जीवन स्तर ऊंचा हो । भेदभाव, छुपा नहीं हैं। सारी प्रजा ही राजा की सन्तान मानी जाती है। छत, एवं ऊंच नीच की गन्ध समाप्त हो । लेकिन ये बुराइयां यदि वह दुःखी है तो एक मात्र मेरे सुपी होने क्या हो तम्हारे शासन भार सम्हालने से जल्दी दूर हो सकती हैं। सकता है । आप सब जानते हैं कि आज देश की क्या शासन के बल पर जो सुधार हो सकते हैं वे केवल उपदेश स्थिति है। लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां एवं प्रचार से नहीं हो सकते । विवाह जीवन का आवश्यक कितनी विषम होती जा रही है। धर्म के नाम पर अंग है। शांत एवं सरल जीवन के लिये उसका होना
पावगड एवं विवेक हीन क्रिया काण्डों का बोलबाला है। श्रावश्यक है। नारी को दिलासता की दृष्टि से ही नहीं
शुद्धों एवं स्त्रियों के लिए धर्म के द्वार हो बन्द कर दिये देखना चाहिये किन्तु नारी में मनुष्य जीवन को अच्छाई की गये हैं। चारों ओर अज्ञान पर फैलाये बैठा है। शिक्षा का और मोडने की जो शक्रि है उसका भी हमें सम्मान करना
पचार नहीं है। स्त्रियों की समाज में जो दयनीय स्थिति
। चाहिए । मनुष्य के उच्छखल विचारों पर रोक लगाने के
है वह आप से छिपी नहीं है । आज चारों और निराशा लिये नारी का होना आवश्यक है।"
एवं उदासीनता के भाव दिखलाई देते हैं। लोगों में न माता त्रिशला उदास बैठी हुई थी। उसकी प्राग्वे उत्साह है और न प्रसन्नता । वे अपने आपको बेबश एवं मजल थी और स्नेह वश अपने पुत्र के मुंह के भावों को असहाय अनुभव करते हैं । यह स्थिति केवल अपने प्रदेश बार बार जानने का प्रयास कर रही थी। वे पुनः कहने ही तक सीमित हो ऐसी बात नहीं है। बल्कि सारे भारत की लगी, "राजकुमार ! माता पिता की इच्छापूर्ति करना सन्तान ही ऐसी दशा है । ऐसी स्थिति में मुझे राज्य के प्रति कोई का प्रथम कर्तव्य है। पुत्र ही वृद्धावस्था का एक मात्र अाकर्षण नहीं है और न में विवाह को जीवन विकास के सहारा होता है। यदि वही उनकी इच्छाओं का पालन लिए आवश्यक समझता हूं। मैं आज से सातवें दिन गृहनहीं करेगा तो फिर किसस आशा की जा सकती है । तुम्हें त्याग करूगा और एकान्त में बैठ कर निरन्तर चिन्तन एवं हमारी ओर भी देखना चाहिए ।
मनन में अपना समय व्यतीत करूंगा। इससे सास्वत सुख