Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१४ ]
प्रस्तावना
मुनिचन्द्रसूरि का उल्लेख आ. म. को. मूलकार नेमिचन्द्रसूरि ने अपने तीन ग्रन्थों में किया है किन्तु आ. म. को. के वृत्तिकार आम्रदेवसूरि ने तथा आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमचन्द्रसूरि ने उनका उल्लेख नहीं किया । इस से यह अनुमान होता है कि बृहद्गच्छीय समुदाय में विद्यमान गुरु-शिष्य- पट्टधर आदि की संख्या बहुत बडी थी । अत एव तत्तत् प्रन्थकारों को अपनी परंपरा के उल्लेख में एक मर्यादा स्वीकृत करनी पडती थी । बृहद्गच्छीय रत्नप्रभसूरि अपने नेमिनाहचरियं ( प्राकृत, अप्रकाशित, रचनासं. १२३०) में एवं उपदेशमालावृत्ति ( रचना सं. १२३८) में मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य वादिदेवसूरि के शिष्य के रूप में अपनी परम्परा बताते हैं। उक्त दोनों प्रशस्ति में वादिदेवसूरि के शिष्य भद्रेश्वरसूरि का पट्टधर के रूप में उनका उल्लेख है और वादिदेवसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि का वादिदेवसूरि के गृहस्थावस्था के भाई के रूप में उल्लेख है । और इनके सिवाय बृहद्गच्छीय अन्य आचार्यों का कोई परिचय नहीं मिलता । प्रस्तुत प्रस्तावना में आये हुए आचार्यों के नाम जैसे ही नाम अन्य कई ग्रन्थों की प्रशस्तिओं में आते हैं, इनमें से कौन भिन्न और कौन अभिन्न है यह —–पट्टावलियों, प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रन्थप्रशस्तियों, प्रबन्धों, रासों, एवं लेखसंग्रहों से खोज करने पर जाना जा सकता है। परंतु समयाभाव के कारण यह निर्णय करना अभी संभव नहीं ।
ग्रन्थकार आचार्यों के एवं उन के गच्छ, कुल और समुदाय का पूरे परिचय के लिए क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया जाय तो लेखकों, शोधकों की हमेशा की परेशानी दूर हो सकती है । इस सम्बन्ध में श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाईने अथक परिश्रम कर के ‘जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक ग्रन्थ वर्षों पहले तैयार किया था किन्तु श्री देसाई को मिली हुई सामग्री अपूर्ण थी, उनके बाद प्राप्त सामग्री का समग्र रूप से अध्ययन कर के इतिहास ग्रन्थ तैयार किया जाय तो एक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा । श्री देसाई के बाद अल्पाधिक प्रमाण में एतद्विषयक प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं परंतु सन्तोषजनक सामग्री वाले ग्रन्थ की अपेक्षा बनी ही रही है ।
विक्रमसंवत् ११९० में गुर्जरेश्वरं जयसिंहदेव के सुराज्य में धवलक्कक (धोलका - गुजरात ) नंगर में ( प्रशस्तिपथ ३२) मूलकार मिद्रसूरि के आदेश से, शिष्य की और उद्योतन नामक श्रेष्ठी की भक्तियुक्त प्रार्थना से यशोनाग श्रेष्ठी की वसति में प्रारब्ध और अच्छुप्तनामक श्रेष्ठी की वसति में (प्र. प. ३३) समाप्त की गई आख्यानकमणिकोश की वृत्ति केवल सवा नौ मास की अवधि में आम्रदेवसूरि ने रची है । ग्रन्थ का श्लोक प्रमाण १४००० है ( प्र. प्र. ३४ ) । इतने कम समय में इस महान् ग्रन्थ की रचना उनकी असाधारण प्रतिभा एवं पांडित्य की द्योतक है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के लिए प्रार्थना करने वाले उद्योतन श्रेष्ठी के पूर्वजों का वर्णन इस प्रकार है
मेदपाट (मेवाड ) प्रदेश में मारावल्ली गांव के अल्लक नामक श्रेष्ठी किसी कारणवश अपना घर छोड़कर आबू की तलहटी के कासहूद नामक गांव में आकर रहे थे । अल्लक श्रेष्ठीने कासहूद में पौषधशाला बनवाई। उन्हें सिद्धनाग नामका पुत्र था । सिद्धनाग को कासहृद गांव अनुकूल न होने के कारण सो धवलक्कक ( धोलका) नामक नगर में आकर रहने लगा । धवलक्कक में मोढचैत्यगृह नामक जिनमंदिर में सिद्धनाग ने सीमंधरजिन की मनोहर प्रतिमा बनवाकर स्थापित की । सिद्धनाग को वृद्धावस्था में उद्योतन नामका पुत्र हुआ । उसने आम्रदेवसूरि को प्रस्तुत वृत्ति की रचना के लिए प्रार्थना की थी ( प्रशस्ति पद्य १४ से २१ ) । प्रशस्ति के १४ वे पद्य में “ यो मेदपाटाध्युषितोऽपि धीमान् " इस प्रकार का विशेषण अल्लक श्रेष्ठी को दिया है । यह मेवाड प्रदेश के अधिकांश लोगों में बुद्धि का तत्त्व कम होने को तत्कालीन लोकमान्यता का सूचक है ।
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