Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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३७. दैवनिवारणाशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम्
३१९
कह साजि-गुरुपूया कह सा कलगीयपमुह सामगी ? । कह सो गो ? कह ते जीवियसमा कुमरा ? || २५६ ॥ हा हियय ! किं न फुट्टसि सुमरंतं सरसपुव्यभुत्ताणं ? । इन्हि विदेसिएहिं परिभुज्जइ भोयणं विहलं ॥ २५७॥ तह विहु परिभुंजिज्जड़ गयलज्जेहिं छुहा पिवासाओ । पत्थावमपत्थावं जाणंति न जेण पावा उ ॥ २५८ ॥ एवं सविसायमणा भुंजित्ता वीसमित्तु खणमेगं । पुरओ केत्तियमेत्तं भूभागं जाच गच्छति ॥ २५९॥ कंट पहाणबच्चूल बोरि-धव-खड़पमुहतरुनियरं । करकरकरन्तकार्य पत्ता को सम्बवणमसुहं ॥ २६० ॥ ता लवणभोयणाओ खरतरकरतरणिगादृतवणाओ । अणुचियसमाओ पुन्नक्खयाओ दवदद्धगमणाओ ॥२६१|| कन्हो तिसाभिभूओ मुच्छा विहलंघलो तरुतलम्मि । पडिओ बंधव! तण्हाए बाहिओ गंनुमसमत्यो ॥ २६२ ॥ वामं पायं काऊणमुवरिमियरस्स रायलीआए । पच्छाइऊण को सेयपीयवत्थेणमप्पाणं ॥ २६३ ॥
मिजिणेसरवयणं व सीयलं मुहय ! पायमु जलं ति । अन्नह पाणा वच्चंति मज्झ इय भणिय पासुत्तो ॥ २६४ ॥ एवं सुन्नमरन्नं ता अपमत्तेण वच्छ ! होयव्वं । जेणऽम्हाणं बहवे वसणावडियाणमरिनिवहा ॥ २६५ ॥ भो भो वाहिया देवयाउ ! एसो पिओ महं भाया । नासो मुक्को तुम्हं रक्खेयव्वो पयत्तेणं ॥ २६६ ॥
अप्पाहि एवं जलमन्निसिउं गयम्मि बलभद्दे । भवियन्वयावसेणं जं जायं तं निसामेह || २६७॥ खर-फरुससरीरछबी पलंबमंसू परूढदीहन हो । वल्लीवियाणसं जमियमुद्धओ वाहवेसरो || २६८ ||
कन्हम्स कालपासेहिं कड्डिओ कलियकंडकोयंडो । पत्तो तम्मि पएसे जराकुमारो कयंतो व्व ॥ २६६ ॥ ग्रन्थाग्रम् १२०००|| आरोविऊण धणुहरमायन्नं कड्डिडं कढिणकंडं । कन्हो मिगबुद्धीए विद्धो वामम्मि पायतले ||२७०॥ तत्तो भयरहिएणं ससंभमं उट्टिऊण भणियमिमं । भो भो ! किल केणाहं विद्धो बाणेण पायतले ? || २७१ ||
ता साहउ नियवंसं नियनामं नियकुलं नियं कज्जं । जेण मए न कया विहु अयाणिओ पहयपुत्र्वो ति ॥ २७२ ॥ हा हा ! धिसि धिसि ! मम चेट्टियस्स एसो हु माणुसो कोइ । हरिणजुवाणो न हु होइ एस इय खिज्जिउं बहुयं ॥ २७३ ॥ साइयं च पुच्छर ता तं उवसप्पिऊण साहेमि । भो भो ! अहयं हरिवंससंभवो जायवसगोत्तो ॥ २७४॥
नामं जराकुमारो पुहई एकल्लवीरचरियस्स । जायववित्थयनहयलमयंक वसुदेवतणय || २७५ ||
रुरु- हरिण-सीह - सद्दूलभीसणे काणणम्मि कण्हस्स । जीवियसमम्स रक्खत्थमेत्थ निवसामि अइदुहिओ ॥ २७६ ॥ इमानि कण्हो जराकुमारो त्ति एस नाऊण । उग्घाडियदुहनियरो एवं भणिउं समादत्तो ॥ २७७॥
ए ! एहि एहि भायर ! परोवयारेक्करसिय ! परिरंभ । एसो सो हं कण्हो तुहमप्पाणस्स वि य दुहओ || २७८॥ तेत्तं परिरंभणमुचियं जलियचियानलस्स महं । निल्लक्खणस्स न उणो पसत्थलक्खणवओ भवओ ॥ २७९ ॥ पियबंधवस्स जीवियसमस्स बारसमवरिसमिलियस्स । कण्हस्स मए भयवं ! विहियमणज्जेण पाहुन्नं ॥ २८० ॥ पावस किं न निवडइ गयणाओ मज्झ मत्थए वज्जं ! । जइ वा सो विहु संकइ फंसेंभयाओ जओ भणियं ॥ २८९ ॥ एरिसकम्मरयाणं जं न पडइ खडहडंतयं वज्जं । तं नूणमिमो चिंतइ छिविउमिमे कत्थ सुज्झिस्सं ? ||२८२॥ इय खिज्जिऊण बहुयं कंठम्मि विलग्गिऊण कन्हस्स । उम्मुक्कमहाधाहं कलुणसरं रोविडं लग्गो ॥२=३॥
हा कन्ह ! हा जणद्दण ! हा जायवगयगमंडणमयंक ! | हा ! कहमिहमायाओ नं बंधव-बंधुजणरहिओ ? || २८४ ॥ किं वा विसामि जलणे ? किं वा पविसामि गुविलपायाले ? । कत्थ गओ सुज्झिम्स ? कस्स मुहं दरिसइस्सामि ? ॥ २८५ ॥ आसंसारमकित्ती संजाया मज्झ मंदभग्गस्स । जह नियमाया कन्हो जराकुमारेण निहओ त्ति ||२८६|| नियवइयरो य एसो जराकुमारम्स पुच्छमाणस्स । कहिओ कण्हेण तहिं सञ्चो आगमणवुत्तंतो ॥२८७॥ इय पलवंतो एसो बाहलापुन्नदीणनयणजुओ | भणिओ जणद्दणेणं अवसर तं मज्झ पासाओ || २८८ ॥ हिययाओ कुत्थुभमणि पायतलाओ समुद्धरिय बाणं । पच्छाहुत्तपएहिं पयाहि तं पंडुमहुराए || २८९ || कवि ही बलभद्दो तो तुमं पि मारिहिही । मा वयउ विणासं जायवाण वंसो निरवसेसो || २९०॥ १. अनुचितश्रमात् । २. स्पर्शभयात् ।
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