Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अवरं च
४१. विवेकिजनस्वकृतकर्मोदयोपनतदुःखाधिस हनाधिकारे सनत्कुमाराख्यानकम्
पेच्छति सड्ड सोलसवण्णयकणगोचमं तयं सव्वं । विम्हइयमणे ते भणइ सबरवेज्जे य रायरिसी || १३७॥ भो भो ! जह एवं निययमंगुलिं का उमहमिह समत्थो । तह सव्वं पि सरीरं काउं मह अत्थि तवसती ॥ १३८ ॥ किंतु इय द्धिवजीवणम्मि जायम्मि भावकिरियाए । होइ अपत्थासेवणरूवो दोसो जओ भणियं ॥ १३९ ॥ जह वाहिओ उ किरियं पवज्जिउं सेवई अपत्थं तु । अपवन्नगाओ अहियं सिग्धं च स पावइ विणासं ॥ १४० ॥ एमेव भावकिरियं पवज्जिडं कम्मवाहिखयहेरं । पच्छा अपत्थसेवी अहियं कम्मं समज्जिइ ॥ १४१ ॥
कारण डिसेवा विहु सावज्जा निच्छरण करणिज्जा । बहुसो वियारइत्ता अवारणिज्जेमु कज्जेसु ॥ १४२ ॥ जइ विहु समणुन्नाया तह वि हु दोसो न वज्जणे दिट्ठो । दढधम्मया हु एवं न य भिक्खनिसेवनिया || १४३ ॥ ता भो ! न भावकिरियामालिन करिं अहं करावेमि । तुम्भेहिं दव्वकिरियं पज्जत्तमइप्पसंगेण ॥१४४॥ चितियमिमेहि सच्चं पपई सव्वहेव सुरनाहो । ठाणे गुणाणुराओ गरुयाणं मच्छरो को ने ? || १४५ ॥ संहरियविज्जवेसा साहाचियरूवसुंदरावयवा | मणिरयणघडियभूसणकलावपहभासुरसरीरा ॥ १४६ ॥
३६७
विजय- वेजयंता देवा सिररइयकरकमलकोसा । रायरिसिं सुहभावा उवट्टिया तं पसाएउं ॥ १४७ ॥ गयणाभोयं पिय पयइवित्थयं निम्मलं निरुवलेवं । तारपहानिन्नासियतमपसरा सूर -ससिणो व्व ॥ १४८ ॥ धन्नो सि तुमं कयलक्खणो सि मुणिनाह ! सुकयपुन्नो सि । तुज्झ सुलद्धं जम्मणजीवियजणियं सुहं च फलं ॥१४९॥ जं सक्को देविंदो सुरराया "तं सलाहइ गुणन्नू । सुरकोडीपैंरियरिओ सोहम्माए सुरसभाए ॥ १५० ॥ तं च असद्दहमाणा समागया तुह परिक्खणनिमित्तं । जं भे झाणविघाओ बिहिओ तं खमह अम्हाण ॥ १५१ ॥ इय मुणिसणं कुमारं खमाविडं लद्धिसंपयाभवणं | आनंदनिन्भरंगा कुसलमणा थुणिउमादत्ता ॥ १५२ ॥ जय चत्तकुमार ! सणकुमार ! वररूवनिज्जियकुमार ! सक्कपसंसिय ! भयवं ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५३ ॥ जय तणसममन्नियचक्कचट्टिछक्खंडवसुहविच्छड्ड ! | अंगीकयतवसंजम ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५४॥ जय अंतरंगरि उवग्गसेन्नमाहप्पदलणदुल्ललिय ! | पत्तमहामुणिवन्नण ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ।। १५५ ।। जय विविहवाहि समवायजणियवियणाऽविसन्नमणपसर ! | अविचलसत्तमहानिहि ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५६ ॥ जय अववायविवज्जियदुक्कर उम्सग्गपक्खसेवणओ । पालियपंचमहव्वय ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५७॥ जय अम्हवयणवज्जरियवाहिसंकंतिमेत्तसवणाओ । अवगयतत्त ! महामइ ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५८ ॥ जय दुव्वहअट्टारससोलंगसहस्सभरसमुञ्चहणे । घोरेयधवलसमगुण ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १५९ ॥ जय विविहमहातवलद्धिसिंधुसमवायपायनइनाह ! | संहरियमणोचिक्किय ! तुज्झ नमो होउ मुणिनाह ! ॥ १६०॥ इय थुणिय मुणियतव्वयमाहप्पकहापर्वचणसयण्हा । सुमरंता तग्गुणनियरमालयं सं वैइंसु सुरा ॥१६१ ॥ साहू वि निययमाउयपज्वंतं जाणिऊण सुहलेसो | संवेगभावियप्पा गीयत्थगुरूण पासम्म ॥ १६२॥ विडित्तु नाण- दंसण-चरित्त तव वीरियाण विसयम्मि । अइयारजायमुच्चारिऊण सम्मं गुरुवयाणि ॥ १६३॥ खामेऊणं सव्वे चउगइसंसारवत्तिणो सत्ते । सुमरंतो अणवरयं हियए पंचण्ह नवकारं ॥ १६४ ॥ पडिवज्जिऊण रागाइचरडलुंटिज्जमाणमग्गाणं | सरणम्मि साहुभूए सरणं चउरोऽरहंताई ॥१६५॥ पञ्चक्खिऊण पयओ चउव्विहाहारजायमवि सव्वं । आराहणापडायं घेत्तुमउण्णाणमइदुलहं ॥१६६॥ कालं काऊण महासणकुमारं गओ समाहीए । नियनामगं व कप्पं परिच्चयंतो वि तं चित्तं ॥ १६७॥ ॥ सनत्कुमाराख्यानकं समाप्तम् ॥१२७॥
जह सकयकम्मकज्जं पासजिणाईहि सम्ममहिसोढं । अवरेहि विदुक्खमिमं तह सहियव्वं सुहत्थीहिं ॥ १ ॥
१. त्वां श्लाघते गुणज्ञः । २. परिकरितः परिवृतः । ३. वयंसु रं० ।
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