Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 486
________________ अपभ्रंशपद्यानामनुक्रमः ३९९ निठुर खुरपहारकंपावियमहिहरखोणिमंडलं, उवणियसेसरायगुरुमणहरु पसरिउ तुरयमंडलं । सेल्ट-मुमुदि-कुंत-वावल्ल-सरासणभरियसंदणा, चोइय चडिय समर दप्पुद्धरकंधर रायनंदणा ।। सुहडा परिपुरैतरणदुजयविकमबाहुपंजरा, संचलिय करालकरवालवियारियमत्तकुंजरा । कियअन्नोन्नबहलहलबोलसमाउलभुवणकंदर, क्लमब्भिट्ट समरि उद्धाइय पडिभडमुहडमुंदरं ॥ [युद्धवर्णनम् , पत्र ४८ पद्य ५७-५८] बलभद्द वि बलभद्द सयल नीसेस विमद्दिय, रावणपमुह पयंड जोह अवरे वि गभद्दिय । न वि उपरिउ कया वि को वि कुवियह जमरायह, पयडपयावह पाणिनिवहु पावह जिम्ब रायह ॥ [कृतान्ते, पत्र ३५६ पद्य ४१] वजंतचारुतूप्यं नञ्चंतनारिपूरयं, गायंततार गायणं दुवंतसाहुयायणं । नुप्पिजमाणचट्टयं पढंतभूरिभट्टयं, आवंतअक्खयत्तयं हीरंतपुन्नवत्तयं । किज्जतबालरक्खयं पूइज्जमाणपक्वयं, सुवेतविद्धिसद्दयं संतुट्ठपीढमद्दयं । ओलग्गमाणसेवयं संधुबमाणदेवयं, आवंतभूरिपाउले तोसिज्जमाणराउल । सिज्झतभत्त-पाणय दिज्जंतदीण दाणय, मुच्चंतगोत्तिबंधणं किज्जतरुट्ठसंधणं । वगंतचारुवारणं संजायलोयसारणं, तुप्पंतसाहुात्तयं लभंतभूरिभत्तयं । इय बहुविविच्छड्डिण रजियसयलजणु, विलसिरकित्तिकुलंगणनिम्मलकुलभवणु । नर-नारियण-नरेसरमणह मुहावणउं, विहवमहाभरिमिभि किउ वद्धावणउ ॥ [श्रेष्ठिपुत्रजन्मोत्सववर्णनम् , पत्र २६६ पद्य ३२ ] वज्जिरगहिरमणोहरतूरारवमुहल, जहिं नवरंगयनिवसणु नारीयणु सयलु । रभसपणच्चिरसुंदरवारविलयनिवहु, जहि सवु सम्माणिज्जइ नायरजणु सवहु ॥ ठावि ठांवि जहि गिजइ चच्चर सवणसुह, मगि मरिंग मग्गिजहि जहिं नरवइपमुह । भवणि भवणि उभिज्जहिं जहि जूवय-मुसल, पइ पइ जहि पूइज्जहि सत्था-55गमकुसल ॥ बंदणमालालंकिय तोरण जहि सहहि, वत्था-ऽऽहरण परोप्पर जहिं नायर लहहि । चट्टथट्ट जहिं दीसइ तेछचुयंतसिर, वद्धावणउं त वन्निउ सकहिं कवण किर? ॥ 'जीव नंद नंद य' रव सुब्बहिं जहि वयण, जहि संतुट्ठउ नरवइ वियरइ रह रयण । अभयदाणु जहिं दिग्जइ मणह सुहावणउं, तं तहिं हरिसिं वित्तउं निरु वद्धावणउं ॥ [राजकुमारजन्मोत्सववर्णनम् , पत्र २५८ पद्य ४४८-५२ ] वरि हर्ष मुय वरि हउँ म जाय वरि विसरि खद्धी, वरि उब्भियसूलियहि भिन्न वरि हुयवहि दद्धी । वरि उबंधियं स्क्वडालि वरि खड्डहि घल्लिय, मैं मई दिलु सवत्तिजुत्तु पिउ हियडासलिय ॥ [सपत्निदुःखे, पत्र ३७ पद्य २७ ] सील सुनिम्मलु दीहकालु तरुणत्तणि पालिउ, झाण-ऽज्झयणिहिं पावांकु. तव-चरणिहि खालिउ । इय हालाहलविससरिच्छ विसयास निवारहि, उज्जलवन्नु सुवन्नु धम्बिई में फुक्कई हारहि ॥ अब्भसिउ वीरपइन्नाण वरु, आवज्जिउ मुणिगुणहं गणु । ता संघइ स्वसमि धरहि मणु, आवइ तुरिउं जर-मरणु ॥ [शीले, पत्र १८३ पद्य १४-१५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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