Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 410
________________ ३८. नष्टमृत रोदनादिनैरर्थक्याधिकारे सगराख्यानकम् विरइय (विरह) विसंक्रमित्तो घणओ इव विहिय उत्तरासंगो । पयडियपुप्फविमाणो विरायए जत्थ सुविसरो ||१६|| चन्नप्प माणसंगयविमाणदिप्पंत देवपडिमहरं । सग्ग व जिणाययणं नियंति निरुवद्दवं तत्थ ॥ १७॥ उस भाइ जिणेसर पडिमदंसणुप्पन्नपयडरोमंचा । पणमित्तु भावसारं एवं थोडं समादत्ता ||१८|| चक्कु लक्खणु, भुवणविलक्खणु, पक्खा लिय बहुपावमलु । च उनीसजिगिंदहं, पणयसुरिंदहं, पणमिवि भसिए पयकमलु ॥ १९ ॥ अट्टावयपचय सेहराहं, भरहेसरकारियजिणवराहं । जमु लेतिर जिगह पमाणु वन्नु तं पभणहुं निसुणहु देवि कन्नु ॥ २० ॥ सई पंच सिरिरिसहसामि, वरकणयकंति करिलीलगामि । धणुस चियारि पंचासअहिय, कणयप्पहि अजियजिदि कहिये ॥ २१ ॥ संभवह जिहि सय चियारि, उच्चत्त कणयवन्नह वियारि । आहुट्टुसयइ धणुहहं पमाणु, हेमाभह अभिनंदनह जाणु ||२२|| सय तिनि सुमइ परमेस रहो, उत्तत्तक्रणयतणुभासुरहो । निम्मलपवालजुइसुप्पहम्स, अड्डाइय सय पउमप्पहम्स ||२३|| दुइ धणुस आसि सुपाससामि, तवणिज्जवन्नु सिवनयरगामि । ३२३ चंद्रप्पहु जिणवरु चंदछाउ, धणुसउ दिवड्दु तसु तणउ काउ ||२४|| for सुविहि संखतलविमलदेहु, सो धणुसउ एक्कु गुणोह गेहु | जिण धणुह नउ सीयसनामु, तवणीयवन्नु निम्महियकामु ||२५|| सेयं सुवन्नवन्नति, धणुहहं असीइ तसु तणु कहंति । रतुप्पलस्तु सुरिंदपुज्जु, सत्तरि धणुहहं सिरिवामुपुज्जु ॥२६॥ जणु विमल विमलकर कणयवन्नु, सो सट्टियणुह सिचपहपवन्नु ! पंचासह जिणवरु अणंतु, कुलभवणु सिरिहि कलहोयकंतु ||२७|| सिरिधम्मु धम्मधुरधरणधीरु, पणयालधणुह मज्जुणसरीरु । सिरिसंतिजिणह चालीस आसि, जो हेमवन्नु सिवनयरिवासि ॥ २८ ॥ पणतीस कुंधुजिण हेमभासु, जिं सासयसिवपुरि पत्तु वासु । अरु कणयवन्नु धणुहरहं तीस, जसु पणमहिं पाय सुरासुरीस ||२६|| नीलप्पलसाम मल्लिनाडु, पणुवीसघणुह केवलसणाहु । मुणिनुब्ब सुब्वउ साममुत्ति, सो वीसधणुह वज्जरिय सुति ||३०|| पन्न रसधणुह नमिजिणवरासु, तवणीयतणुहु पणयामरासु । घणकज्जलसामल रिट्टनेमि, दसघणुह धम्मवरचक्रनेमि ||३१|| मरगयसवन्नु तित्थयरु पासु, नवहत्य विणिधुयकम्मपासु । कणसामु सत्तरयणीपमाणु, सिद्धत्थह नंदणु वद्धमाणु ||३२|| इयनिरुवमसासण, भुवणपयासण, जो नरु भत्तिए संथवइ । चवीस वि जिणवर, सिवसिरिवहुवर, सो संसारि न संभमइ ||३३|| Jain Education International एवं थोडं जिणहरगिरिवरगयचंगिमाहरियहियया । पुच्छंति मंतिवग्गं सप्पणयं ते पयतेण ||३४|| के इमं जिणभवणं कारवियं सुकयकम्मुणा सुहयं ? । तेण वि कहियं जह किर नियजणयसयासओ सोउं ||३५|| जिणभवण विहाणफलं कारवियं भरहचविणा एयं । तेहिं वि भणियं जोयह एयारिसपव्वयं रम्मं ||३६|| जे अम्हे जिणभवणमेरिसं मणहरं करावेमो । तेहिं वि तारिसयगिरी गवेसिओ विहु महीवीढे ||३७|| जा कह विनोवलद्धो ता भणियमिमस्स चैव काहामो । रक्खाविहाणमणहं जेण महागुणमिमं पिजओ ||३८|| जिन्नाणं सिन्नाणं भट्टाण महाफलं समुद्धरणे । समए चिरंतगाणं दंसियमन्नच्चयाणं पि ||३६|| तत्तो वड्डरयणेण छिंदिरं जोयणप्पमाणाओ । पइयाओ दुरारोहाओ भाविमणुयाण विहियाओ ||४०|: उपासेसुं जोयणसहस्समाणा खणाविया परिहा । जिणभवणरक्खणट्टा विसुद्ध चितेहिं कुमरेहिं ॥ ४१ ॥ जाओ भवणवणं भवणेमु उवद्दवो तओ रुट्टो । जलणप्पहाभिहाणो अग्गिकुमारो गुरुप्रभावो ||४२|| तू भणिया भोपाचा ! किं समायरियमेयं ? | अहवा दुन्नयकरणाणं तुम्ह समुवट्टियं मरणं ॥ ४३॥ तो जन्हकुमारेण मा रूस सुभद्द ! जिणहरस्स कए । कयमेयं ति सविनयं खमाविओ सो गओ ठाणं ॥ ४४ ॥ भविव्वया निओगे तेसिं चिंता पुणो इमा जाया । अइसोहणा वि परिहा जलरहिया सोहइ न एसा ||४५ || For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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