Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text ________________
३५४
आख्यानकमणिकोशे
परिणऊण विडंबिय परिचत्ता इय विचितिउं तेण । पावेण घडीकंठो ठविओ सीसम्मि से मुणिणो ॥ ४३ ॥ भरिओ य जलंताणं अंगाराणं पणट्टकरुणेण । तेहि मुणी उज्झतो सम्मं अहियासिउं लग्गो ॥ ४४ ॥ मा कुप्पयु जीव ! तुमं इमम्स जम्हा निमित्तमित्तमिमो । अवरज्झ तुह इह कम्मपरिणई पुञ्वभावविहिया || ४५ || वयग्वेि यणाओ (?) सहियाओ अणगसो तए नरए । इहि पुण पीडिस्सइ केत्तियमेत्तं इयरजलणो ? || ४६ || अज्ज विय संसणिज्जी होइ इमो सव्वहा वि रे जीव ! । जो सिद्धिपुरपहम्मि एवं तुह कुणइ साहिज्जं ॥४७॥ एवं विचितयंतम्स तस्स सीसं बहिं दहइ दहणो । मज्झमि भवपरंपरसमज्जियं कम्मकट्टभरं ॥ ४८ ॥ जह जह उच्छलद्द महावियणा जलंगण तस्स तवनिहिणो । तह तह स महासत्तो धम्मज्झाणं समारुहइ ॥ ४६ ॥ इहभवि - पारभविए जीवे खामेइ खमइ य सयं पि । पणमइ कमकमलं भुवणसामिणो नेमिनाहम्स ||५० || आलोयणं पयच्छइ सिद्धाण पवडमाणपरिणामो । एवं अहिया संतस्स तस्स सम्मं जलणवियणं ॥ ५१ ॥ जायं लोया लोयप्पयासयं विमलकेवलन्नाणं । तवेलं चिय निव्वाणमुत्तमं सां समणुपत्तो ॥ ५२ ॥
यदि सब दुहा वि दोघट्टमारुहेऊण । नमणत्थं नेमिजिणस्स निग्गओ कण्हनरनाहो || ५३|| पत्तो य समवसरणे नमिउं जिणपायपरममुबविट्टो । भयवं ! गयसुकुमालो कत्थऽच्छइ ? पुच्छिए तेण ॥५४ || सिद्धिट्टा सिट्टो जिणेण कह मेयमुल्लवइ कण्हो । भणइ जिणो जह तुमए आगच्छंतेण साहिज्जं ||१५|| करुणारसिएण कयं विप्पस्स जराए विहुरियंगस्स । देवलियाकरणकए सिरेण इट्टा वहंतस्स || ५६ || तह सुकुमालस्स वि केणाचि कयं तओ भणड़ कण्हो । कह नज्जिही स भयवं ! मए ? तओ भणइ भुवणगुरु ॥५७॥ उच्बंधणानिमित्तं निम्गच्छंतस्स जस्स तं ददुं । फुडिही सिरं तहेव य मरिही स तए मुणेयव्व ॥ ५८॥ इय सोउं कण्हनिवो नियबंधवमरणजायगुरुसोओ। 'अंसुजलोल्लकवोलो नमिउं नेमिं पडिनियत्तो ॥ ५९ ॥ ॥ जा पुरीए पविस्सर कहो ता दिट्टिगोयरं पत्तो । सो सोमसम्मविप्पो फुहं से सत्तहा सीसं ॥ ६० ॥ तो पंचत्तं पत्तो चिन्नाओ वासुदेवनरवइणा । नयरीए भामिओ सो कड्डावेऊण पाएहिं ॥ ६१ ॥ खित्तो य पुरीए बहिं एरिसमन्नो वि कुणउ मा पावं । इय निसुणिऊण गुरुदुक्खसल्लिया जायवा सव्वे ॥६२॥ वसुदेवेण विरहिया निक्खता नव दसारनरनाहा । तह नेमिबंधवा सत्त संजुया हरिकुमारेहिं ॥ ६३ ॥ जिणजगणी सिवदेवी तह हरि बलभद्दकन्नयाओ वि । [" ..]। देवइ - रोहिणिरहिया फव्वइया नेमिपासम्मि ॥ ६५ ॥ किंबहुना गयसुकुमालसोयसल्लियमणो समग्गो वि । वसुदेवबंधुवग्गो निक्खंतो जायसंवेगो ॥६६॥ ॥ गजसुकुमालाख्यानकं समाप्तम् ॥१२५॥
...॥६४॥
इदानीं मेतार्याख्यानकं प्रस्तूयते । तचेदम्
साए साके साए गुणगणागरे नयरे । साहारे साहारे साहारे सउणसउणाणं ॥ १ ॥ नियजसधवलिमनिज्जियसारयचंदावयंसया जस्स | चंद्रावयंसयासममित्तघणा पुरजणा जस्स ॥२॥ सयलकलागमपडिपुन्नभावनियवंसमहमिययसोहो । संपाडणपक्खदुगुज्जलत्तअकलंकयाईहिं ॥३॥ उपायंतो चंदावयंसओ सुहयनिम्मलगुणेहिं । चंद्रावयंसओ नाम नरवई [राय ] सिरिमवइ || ४ || सव्वंते उरसाराओ गयवियाराओ सुइसरीराओ । निम्मलगुणधाराओ सिणिद्ध - मि उचिहुरभाराओ ||५|| महिहर समुन्भवाओ सुकुमाराओ सिवासयधराओ । गंगा-गउरीओ विव हरस्स दो तस्स दइयाओ ||६॥ पढमा तासिंनामेण धारिणी धारिणी धरावइणो । बीया वयणविणिज्जियपउमा परमावई नाम ||७|| रूवविणिज्जियमयणा ससिवयणा कमलपत्तसमनयणा । कुंदकलियाभरयणा दो दो तासिं च सुयरयणा ||८|| निययं हिययपट्टा समुन्नयाऽन्नोन्नसंगपाचित्ता । सिहिणा इव नयणपिया संपक्कसुहा सुवयणा य ॥ ६॥ १. जलार्द्र कपोलः । २. स्फुटितम् । ३. मरणम् । ४. कर्पयित्वा ।
Jain Education International
For Private
Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504