Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 339
________________ २५२ आख्यानकमणिकोशे तीए भणियं भयवइ ! मह भत्तारो वसीकओ कहवि। कीए वि तावसकन्नाए संपयं किं करेमि अहं ? ॥२१३।। सा वि ह जंपड़ जइ भणसि तुज्झ वसवत्तिणि करमि तयं । तो रुप्पिणीए वुत्तं भयवइ ! भुवण वि तुह कजं ॥२१४॥ नस्थि असझं किंचि वि ता मह उवरिं करेवि कारुन्नं । तह कहवि जयमु संपइ समीहियं होइ जह मज्झ ।।२१।। एवं तीए वुत्ता अणवस्यपयाणएहि संपत्ता । रहमदणम्मि नयरे दिट्ठो कुमरो सह पियाए ॥२१६॥ तो चिनियमेयाए गिसिदत्तारूवसंपयं दद। एवंचिहरूवणं माहिजई का न एयाए ? ||२१७|| जीवंतीए इमीण सुमिण वि न रुप्पिणिं महइ कुमरो। को अमयपाणतित्तो कंजियमहिलसह मुक्खो वि ? ॥२१८॥ परमेयारिसपावं नरयदुहावहमणज्जरिया हं । गुणवंतं पत्तमिमं मारिय कहमायरिम्सामि ? ॥२१९॥ इय पुण करुणं काउं ववसामि न साहसं इमं कहवि । ता भट्टपइन्ना हं कह तीए पुरो भविस्सामि ? ॥२२०॥ इय चितिऊग तीए करुणावियलाए कृरकम्माए । सव्वजणक्खयकारी विजाए विउव्विया मारी ॥२२॥ मणमोहणीए विजाए मारि रायसम्मयं पुरिसं। रुहिरेणं हत्थमुहे रिसिदत्ताए विलिंपेइ ॥२२२॥ दणं तं वइयरमहमसरुवं जणो पयंपेइ । कुमरऽत्थाणे पावस्स कम्स किर ववसियं एयं ? ॥२२३।। कुमरो पियाए वयणं दट्ट संजायविम्हओ भणइ । किं तुह चेट्टियमेयं ? ति सा वि जंपइ न याणामि ॥२२४॥ बीयम्मि दिणे तह चेव रायपुरिसं विणासि पावा । मुंचइ रिसिदत्ताए सयणे नरमंसखंडाई ॥२२५॥ कुमरो वि तयं दट्टुं चिंतइ नणु रक्खसी पिया मज्झ । सा वि हु पुट्टा सुद्धस्सहावओ भणइ तं चेव ॥२२६॥ कुमरो वि ताणि धरणीए गोवप हड्डु-मंसखंडाइं । तइए वि दिणे तह चेव मारिरं कुणइ तं चेव ॥२२७॥ नवरं कुमारछुरियं रुहिरेण विलिंपिडं वयइ गेहे । विजाए न सा नजद निग्गच्छंती न पविसंती ॥२२८॥ कुमरो वि तयं छुरियं रिसिदत्ताए पयासिउं मणइ । अज पिए ! किं जंपसि ? सा जंपइ पुच्छ मह कम्मं ॥२२९॥ पुणरवि य मोहमोहियमणेण सा दढयरं रहे पुट्टा । कहसु पिए ! सम्भावं तुझ हियत्थं भणेमि अहं ॥२३०॥ जइ तुह माणुसमंसे कुओ वि कम्मोदयाओ रसगिद्धी । ता हं पच्छन्नं पि हु एवं संपाडइस्सामि ॥२३१॥ एवं भणिया लज्जाए कि पि ओणयमुही परुन्ना सा । किं तुह पिययम ! पच्छन्नमेरिसं किं कयावि कयं ? ॥२३२॥ तुमए चिय सच्चवियं तवोवणे मज्झ भत्त-पाणाई । जइ पुण पच्छन्नं को वि कुणइ पहु ! तं न याणेमि ॥२३३॥ कुमरो वि तीए दुस्सहविओगजणयं दुहं असहमाणो । सव्वं गोवइ पुट्टो य भणइ नाहं वियाणामि ॥२३४॥ ताहे रुट्ठो राया पुच्छइ नियमंतिणो नयरमज्झे । वइससमेयं न मुणह तुम्हाणं केरिसा बुद्धी ? ॥२३५।। तेहिं वि सविणयमुत्तं तह कह विहु संपयं जइम्सामो। जह कजमिणं जायइ विन्नायं देवपायाण ॥२३६।। इय भणिऊण पवीणा पव्वाया होइ एरिसे कज्जे । सायरमओ तयं चिय गंतुं पुच्छंति पव्वाइं ॥२३७॥ तीए भणिए सव्वं सुत्थमहं संपयं करिस्सामि । रयणीए देवयं पुच्छिऊण तत्तं कहिस्सामि ॥२३८॥ रयणीए रुहिरेणं रिसिदत्ताए मुहं विलिंपेउ । अवसोयणिं च दाउ रन्नो पास गया पावा ॥२३९।। अभयं मग्गिय जंपइ रिसिदत्ताचेट्टियं इमं राय !। जा जोयावइ राया ता पेच्छइ तं तह च्चेव ॥२४॥ तो जायपच्चएणं रन्ना निस्सारिऊण सा बाला । पाणाणमप्पिया मारणथमकयावराहा वि ॥२४॥ पाणेहिं वज्झमंडणपुव्वंसा विनडिऊण नयगए । नीया निद्द यहियएहि तेहिं भीमे मसाणम्मि ॥२४२।। कत्थइ भल्लुंकियरुद्दसदविद्दवियकायरजणोहं । कत्थवि य कूरकोल्हुयदाढाविक्कत्तियकरकं ॥२४३।। कत्यवि य मडयवस-मंसपट्टवेयालभृरिभयजणयं । कत्थवि य विहियसंकुद्धसाइणीकिलिकिलारावं ॥२४४॥ कत्थवि य पयडडझंतमडयदुग्गंधभरियदिसिविवरं । कत्थवि य दूरमुभवियबाहुनच्चंतभूयगणं ॥२४५॥ कत्थवि य वीरविकिज्जमाणनियदेमंसखंडलयं । कत्थवि कावालियकीरमाणवरविजसाहणयं ।।२४६॥ इय एरिसविहभीसणमसाणमज्झम्मि मुक्किया बाला । सुमरिय कुमरं पलवइ पमुक्कलल्लकपोकारं ॥२४७॥ हा पाणदइय! हा अमयमइय! हा निद्धहियय : हा नाह! हा जीवियसम! हा परममहिम! हा पत्तजयपउम। ॥२४८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504