Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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अन्नं च-
तहाहि
३६. सम्पद्विपदोः सत्पुरुषसमतावर्णनाधिकारे नरविक्रमाख्यानकम्
संसारियसोक्खपिवासियाण कुलबालियाण किल एवं । पइणो विसए निच्छियममंत- मूलं वसीकरणं ॥ १७६ ॥
विजय सरूवं गव्वं पि हु सव्वा परिच्चयसु । धणुदंडं चिय विउसा जेण सगव्वं पसंसंति ॥ १८० ॥ रज्जसिपमुहेतुं सुवच्छे ! मयं पि परिहरसु । सुयणु ! ससि व्व निरूवसु समओ झिज्जर सुहयरो वि ॥ १८९ ॥ दापि जहा विहवं सया पयट्टेमु पणइचम्मम्मि । मयसमयम्मि अदाणो करि व्व निंदिज्जइ जणेण ॥ १८२ ॥
सिक्खणि सुयं दूरमणुव्वल्य देवसेणनियो । वलिओ चिवन्नछाओ सुमरंतो ताण गुणनियरं ॥ १८३ ॥ कुमरो वि अखंडपाणएहिं पत्तो जयंतिनयरीए । नवजलहरो व्व सिहिणो पिउणो मग्गं नियंतस्स ॥ १८४॥ जयवारणमारुढो सीलमईए समं सभज्याए । पिउणो पुरीए सोहं पेच्छंतो विसह अह कुमरो ॥ १८५ ॥ कुमरस्स दंसणत्थं दो वि पासेसु रायमास्स । हट्ट -ऽट्टालय- देउलय-भवणपासायसिहरगओ || १८६ ॥ मोत्तु ं नियवावारं निस्सेसो नयरिनारि-नरनियरो | निच्चलनेत्तो नरनाहनंदणं नियइ नयणमुहं ॥ १८७॥ परिणयवहिं भणियं सव्वं पि हु होइ पुन्नवन्ताण । जेणेसो पत्तजसो सकलत्तो नियपुरिं पत्तो ॥ १८८ ॥ तरुणाण भइ को विहु कुमरो रूवेण मयरकेउ व्व । अवरो जंपइ कुमरी तिहुयणअन्भहियरुवगुणा ॥ १८९ ॥ विद्धाहि भणियमम्मा-पिऊण सुइरं कुणंतु संतोसं । जीवंतु चिरं विलसंतु संपयं पुन्नवन्ताणि ॥ १९०॥ तरुणीण पुणो तरलत्तणेण अविवेयबहुलयाए य | विविहालाचा जाया परोप्परं ताण विसयम्मि || १९९१ ॥
कीय विकहियं करकमलकलियवज्जो पियाए सह कुमरो । सोहइ सिंधुरखंधे सहि ! सेइसहिओ सुरिंदो व्व ॥ १९२॥ अवए भणियमलं पियसहि ! तुह जंपिएण जेण हरी । सो अकुलीणो अवरं च छिद्दसंछन्नसव्वंगो ॥ १८३॥ सुह सिरिजणओ सोहइ समारिओ निवसुओ महासयणो । वेलाए सहिओ जलनिहि व विलसंतलायन्नो ॥ १९४ ॥ मयरसिएण जलहिणा अमयं विन्दु जडासएण समं । कुमरं करेसि जाणंतिया वि पियसहि ! बहु भुल्ला ॥ १९५॥ कप्पियकरेण संतावहारिणा सहि ! समो सहइ कुमरो । भज्जासहिओ कप्पदुमेण सियचंपयलपण || १९६ ॥ साहिपहाणं मणताववज्जिएणं समं कुमारेणं । जंपती सिरसूलं पिय[सहि ! ] मह कुणसि जाणंती ॥ १६७॥ करकलियसंख-चक्को जणनिव्वुइकरसुदंसणो कुमरो । सीलमईए सिरीए व सहिओ बिन्दु व्व पडिहाइ ॥ १९८ ॥ आचयवइसयणेणं सुहिसयणो विण्हुणा समो कुमरो । लच्छीसमभज्जो वि हु सगएण निरामओ कह णु ? || १९९॥ सुहरसणो जयसूरो मय-रणभयवज्जिओ सह पियाए । सीहीए समं पंचाणणो व्व सहि ! सोहइ कुमारो ||२००|| सहि ! ससधर सियदेहेण भणसि सीहेण जं समं कुमरं । केण वि अगंजियं तं मयच्छि ! मह चालसि अणक्खे ||२०१॥ इय परपुरंधीणं कुमरो समयणवियड्डवयणाणि । निसणंतो नायरनारिनयणमालाहिं पिज्जती ॥ २०२ ॥ वीइज्जंतो वत्थंचलेहिं नरनाहमंदिरं विसइ । उभियतोरण- मोत्तियच उक्ककलियं कलाकुसलो ॥२०३॥ पणओ पिउणो पाएसु सविणयं भारियाए सह कुमरो । पिउणा वि हु परिपालसु रज्जधुरं एवमणुट्टो ||२०४॥ माया पुण पणओ चिरकालं जियसु पुत्त ! इय भणिओ । सीलमई पुण भणिया अक्खयवच्छा भवसु वच्छे ! ॥२०५॥ नियपासायसमीवे पासायं देइ निययकुमरस्स । भोगोचभोगपरिवारसंजुयं सहरिसं जणओ ||२०६ || जुवरज्जम्मि निवेसइ नायरजणसम्मएण ते कुमरं । इय सो सत्थत्थचिऊ नियजणयपसायदुल्ललिओ ॥ २०७॥ पंचविहे कामगुणे भुंजंतो भारियाए सह कुमरो । दोगुंदुगो व्व देवो गयं पि कालं न याइ ॥२०८॥ अह अन्नया कुमारो पंडियगोट्टि समीहए काउं । चउरमइ - विउसभूसणनामगमित्ताइपरियरिओ ||२०९ || सद्धिं सहिसहियाए सीलमईए वियड्डभज्जाए । नियपासायवरगओ सरिऊण सुभासियं एयं ॥ २२० ॥ काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन हि मूर्खाणां निद्रया कलहेन च ॥ २१९ ॥ १. शचीसहितः ।
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