Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text ________________
३७. दैवनिवारणाऽशक्यताधिकारे यादवाख्यानकम् भवकुसेसयभाणू नियकिरणहि व सुहोवएसेहिं । नासियतमंधयारो बोहिन्तो भवियकमलवणं ॥१२०॥ घोसावियं पुरीए जणदणेण वि जिणेण वागरियं । जं किर तं तुमहिं वि सक्खं निसुयं निरवसेसं ॥१२१।। मजप्पमायवसओ नासो नयरीए जं समाइट्टो । परिवजह पावमिमं तम्हा मजं परमसत्तुं ॥१२२।। कन्हाएसेण तओ मजं मणवल्लहं पि पउरेहिं । कायंबरीगुहाए मज्झम्मि समुझियं झत्ति ॥१२३॥ अन्नमिमं आइ8 सव्वो वि जणो जिणिंदभवणसु । न्हवण-विलवण-पूयणवावाररओ हबउ निच्चं ॥१२४|| पोसहसालाए पुणो चउम्विहाहारवजणुज्जत्तो । सज्झाय-ज्झाणरओ जहासमाहीए पासहिओ ॥१२५।। पारद्धिपावविरओ असच्चभासण-परम्सहरणेसु । परदारपसंगेमु य जहसत्तीए भवउ विरओ ॥१२६॥ एवं धम्मरयाणं विसिट्ठसंवेगभावियमणाणं । लोयाणमकल्लाणं न किं पि पायं समावडइ ॥१२॥ अह अन्नया तहाविहदुद्धरभवियव्वयानिओएणं । संबाइया कुमारा विणिग्गया कह वि कीलाए ।।१२।। कायंबकाणणम्मि संबकुमारम्स संतिओ पुरिसो । को वि पिवासाभिहओ गओ भमंतो वणनिगंजे ||१२९।। जत्थऽच्छइ किर मज्जं समुझियं गिरिगुहाए कुंडेसु । छम्मासावत्थाणा सुपक्कमइसाउरसकलियं ॥१३०॥ तेण य पिवासिएणं आकंठपमाणओ तयं पीयं । कहियं संबाईणं गएहिं तत्थट्ठियं दिढें ॥१३१॥ तेहिं वि तयमइरसियं पीयं चिट्ठति जाव खणमेगं । ताव य मयाभिभूया संजाया परवसा सव्वे ॥१३२।। कहिं वि भमंतेहिं वणे दिट्ठो दीवायणो रिसी तत्थ । संभरियपुव्ववइयरा आयंबिरलोयणा जाया ॥१३३।। एसो सो किर पावो दहिही अम्हाण संतियं नयरिं । ता संपइ जाइ कहिं दिट्ठो अम्हेहिं दुट्टप्पा ? ॥१३४॥ जुगवं पि तओ लग्गा हणिउं पाहाण-जट्टि-मुट्ठीहिं । निच्चेट्टं काऊणं अन्नाणाओ गया नयरिं ॥१३५॥ विनायवइयरेहिं सिग्य बलदेव-वासुदेवेहिं । भयभीयमाणसेहिं खमाविओ पायवडिएहिं ॥१३६।। भो भो ! खमसु महायस ! खमापहाणा भवंति महरिसिणो । मा कुणसु भद्द ! को कोवो जं दारुणसहावो ॥१३७॥
... जओ
पढमं चिय तं जंतुं कोहग्गी दहइ जत्थ उववज्जे । जत्थुप्पन्नो तं चेव इंधणं धूमके उ व्व ॥१३८॥ रन्ने वि कयावासा कसायवसया वयंति नरयगई । वसिमे वि कयनिवासा जिइंदिया जंति सुरलायं ॥१३९॥
किंच
एगस्स वि नियहिययस्स भद्द ! विनिवारणे जइ न सत्ती । ता कह पारंभियभवमहारिविणिवारणं तुझ ? ॥१४०॥ अह भणसि निरवराहो कयत्थिओ हं इमेहिं पावेहिं । तं पि न जं अवयासो खंतीए कयावराहेसु ॥१४१।।
जओ
जं खमसि दोसवंते सो तुह खंतीए होइ अवयासो । अह न खमसि को तुह अविसयाए खंतीए वावारो ? ॥१४२॥ अवरमिमेसि सिसूर्ण विवेयवियलाण मूढहिययाण । खमियत्वं चेव जओ देवियाय होइ न दमाया ॥१४३॥
तहा
पढउ सुयं धरउ वयं कुणउ तवं चरउ बंभचेराई । तह वि तयं सव्वं पि हु निरत्थयं कोववसगस्स ॥१४॥ अन्नं च भो महारिसि ! कोहवसट्टो दयं पि नासेज्जा । दहइ तव-संजमं पि हु जहेव मंडुक्कियाखमओ ॥१४॥ परिगलइ मई नम्सइ सरस्सई गलइ वयपरीणामो । कोववसयाण तम्हा परिहरसु कसायसत्तुमिमं ॥१४६॥ भणियं च तेण सव्वं अहं पि जाणामि जं अकजमिणं । सव्वेसिमणत्थफलं विसेसओ वयपवन्नाणं ॥१४॥ परमभिमाणवसेणं तया निरायं कयथिएण मए । बद्धं नियाणमसुभं निकाइयं चेव तं च इमं ॥१४८|| जइ अस्थि इमस्स फलं कट्टाणुट्ठाणसंचियतवस्स । तो पावाणमिमेसिं नयरिमहं निडुहिज्जामि ॥१४॥ परमेवं पणयाणं विणयजुयाणं भविस्सई मोक्खो । तुम्हं दोण्ह जणाणं सुणयम्स य नत्थि अन्नस्स ॥१५०॥
१. दुर्विजातं-दुःसन्ततिः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504