Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 387
________________ ३०० आख्यानकमणिकोशे तप्पभिइ कलाकुसलत्तणेण कुमरो विचित्तमालाओ । गुंथइ सीलमई वि हु ताओ विक्किणइ रायपहे ॥३३५॥ परमेसा रूवबई पयईए पसंतवम्महचियारा । कुणइ जणाण वियारे वत्थाऽलंकाररहिया वि ॥३३६।। भणियं च मुद्धाण नाम हिययाई हरंति हंत !, नेवच्छकम्मगुणणेण नियंबिणीओ। छेया पुणो पयइचं गिमरंजणिज्जा, दक्खारसो न महुरिज्जइ सक्कराए ॥३३७॥ अह अन्नया य दीवंतराओ पत्तेण पोयवणिएण । दिट्टा य देहिलेणं तओ य सा मयणवसगेणं ॥३३॥ भणिया तुह पुप्फाणं विच्छित्ति का वि सुंदरि ! अपुव्वा । ता मह इमाणि सव्वाणि सुयणु ! मोल्लेण देयाणि ॥३३॥ अन्नत्थ न गंतव्वं कत्थइ सो देइ समहियं दव्वं । सा वि हु घणलोभेणं पइदियहं देइ तस्सेव ॥३४०॥ अह अन्नया य भणिया सीलमई तेण पावकम्मेण । मयणाउरेण सीलम्मि निच्चला हरिउकामेण ३४१॥ जइ एहि जाणवत्ते मह पासे तो बहूण पुप्फाण । सिग्धं पि विक्कओ होइ सा वि तत्येव संपत्ता ॥३४२॥ तीए सुद्धसहावाए जाणवत्ते मुणालवेल्लहला । पक्खित्ता बाहुलया पुप्फाण समप्पणनिमित्तं ॥३४३॥ तो घेत्तु पावणं चडाविया तेण जाणवत्तम्मि । संवरिया नंगरया समुभिओ झत्ति सेयवडो ॥३४॥ चालेऊणमवल्लाइं पेल्लियं पाणियम्मि तं वहणं । आयन्नायड्डियचावमुक्ककंडग्गवेगेण ॥३४५|| पत्तं पभूयजोयणपमाणमाणम्मि जलहिमज्झम्मि । एत्तो वि गिहे कुमरो पियाए मग्गं पलोएइ ॥३४६॥ जाव न पत्ता ताहे गवेसिया तेण तत्थ सव्वत्थ । अनियंतेणं कहिओ मालायारस्स वुत्तंतो ॥३४७॥ तेण वि चउक्क-चच्चरठाणेसु गवेसिया पयत्तेण । तत्तो य नयरबाहिं निरूविया जाव न हु दिट्टा ॥३४८॥ ताहे पाडलएणं भणिओ कुमरो नईए परकूले । भद्द ! गवेससु गंतुं कइया वि हु होइ तत्थेव ॥३४९॥ ते विहु जणणीविरहे पिउपासं पुत्तया न मुंचंति । तो तेहिं सहिओ च्चिय गवसणत्थं नईए गओ ॥३५०॥ संठाविऊणमेगं बीयं नेउं नईए परकूले । जावाऽऽगच्छइ पढमाणयणत्थं ताव असुहवसा ॥३५१॥ सहस च्चिय नइनीरं विद्धि पत्तं तओ अवसपाओ । पययूरेण नईए कुमरो वोढुं समाढत्तो ॥३५२॥ भवियव्वयाए पत्तं कि पि हु कट्ठाइयं नईमझे। तन्निस्साए पत्तो केत्तियमेत्तम्मि भूभागे ॥३५३॥ उत्तरिऊण तहाविहतरुपायं पाविउं समुवविठ्ठो । चिंतइ विसन्नहियओ विहिविलसियमप्पणो असुहं ॥३५४॥ पेच्छसु एगपए च्चिय मह विहिणो वामया यासस्स । जं चिंतिउं न सक्का न यावि सहिउं न वा कहिउं ॥३५५|| भणियं च चिंतिज्जइ जं न मणे जुत्तिवियारेण जुज्रइ न जं च । तं पि हयासो एसो सुहमसुहं वा विही कुणइ ॥३५६।। तहा खणदंसियसुरसरिवित्थराइ खणसुन्नरन्नसरिसाइं। एयाइं ताई कम्मिदयालिणो जीव ! ललियाई ॥३५७॥ जणय-जणणीविओगो पियाए विरहो सुयाण विच्छोहो । भूयबलि व्व कुटुंबं दिसोदिसिं पत्तियं विहिणा ॥३५८॥ न तहा जणणी-जणया न तहा मह भारिया तवइ हिययं । जह बाला वणमझे दुहावहा नद्धसल्लं व ॥३५९॥ ता किं करेमि संपइ ? कं वा सरणं जणं पवजामि ? । विसम-विसंटुलचेट्टिय ! हयविहि ! वच्चामि भण कत्थ ?॥३६०॥ अहवा गरुयाणं पि हु जायइ वसणं विहिम्मि विवरीए । किर किं चोज्जं अम्हारिसाण ? विउसा भणंति जओ ॥३६१।। अलङ्कारः शङ्का करनरकपालं परिकरः, प्रशीर्णाङ्गो भृङ्गी वसु च वृष एको गतवयाः । अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति यत्रामरगुरोविधौ वक्र मूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी ? ॥३६२॥ ता मह सत्थत्थविसारयस्स जुत्तं न सोइउं एवं । इय जा संठवइ मणं ता जं जायं तयं सुणह ॥३६३॥ सिरिजयवद्धणनयरस्स सामिओ कित्तिधम्मनरनाहो । सूलाइकयायंकणमुवरओ केवलमपुत्तो ॥३६४॥ तत्तो तप्पयसमुचियसव्वुत्तमपुरिसरयणनाणत्थं । अहिवासियाणि मंतीहिं पंच दिव्वाणि विहिपुव्वं ॥३६॥ www.jainelibrary.org | Jain Education Interational For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504