Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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२७४
आख्यानकमणिकोशे
जम्मंतरनेहाओ किंवा तुह दंसणाओ पडिबंधो । जं तुह् पास मेल्लंतियाए वच्चंति मह पाणा || ३९॥ विदलइ हिययं निज्जाइ मह रई कप्परिज्जए अंगं । परिवड्डइ रणरणओ तं वारिज्जइ समाहाणं ॥४०॥ तुह कोमलतणुफरिस - दंसण-संभासणाइओ जाओ । मं दहइ मयणजलणो ता सुहयमु संगमजलेण ॥ ४१ ॥ तं मह नाहो तं मज्झ सामिओ तं गई मई चेव । तं चिय आसट्टाणं संपइ मह मंदपुन्ना ॥ ४२ ॥ तुहसंगो अमदहो अमयफलाई व तुज्झ नयणाई । तुह अंगममयकुंडं तुह वाणी अमयरसकुल्ला ॥४३॥ इय कूलवालयमुणी तीए तारिसवियड्ड भणिएहिं । अभिमाणघणो वि तया बद्धो दढनेहनियलेहिं ॥ ४४ ॥ तीए भणिए तूसइ ससिणेहं नियइ तीए मुहकमलं । परिसिढिलियधम्ममई धणियं जाओ जओ भणियं ॥ ४५ ॥ पासो व्व बंधिउं जे महिला छेत्तु असि व्व पुरिसस्स । सल्लं व्व सल्लिउं जे विमोहिउं इंदजाल व ॥४६॥ फालेउं करवत्तं व्व होइ सूलं व्व महिलिया भेत्तुं । पुरिसस्स खुप्पिउं कदमो व्व मच्चु व मरिउ जे ||४७॥ खेलालीढा तुच्छ व्व मच्छिया दुक्करं विमोएउ । महिलासंसग्गीए अप्पाणो पुरिसमेत्तेण ॥४८॥ पुणरवि तीए भणियं कूडकुहेडयम हल्लखाणीए । मा तम्मसु तुह वेला महेसपासाणरेह व्व ॥ ४९ ॥ पत्थावे सममेव य सामन्नमणुत्तरं चरिस्सामो । पच्छा वि हु धम्मधणा मलिणं सोहिंति अप्पाणं ॥ ५० ॥ संपद तारुन्नमिमं निरत्ययं सुहय ! नेसु मा एवं । दियहाइ पंच दह वा जोव्वणमिणमो बुहा चिंति ॥ ५१ ॥
सो किलिकम्मोदयाओ गुणनिहिगुरूण वयणस्स । अवितहभावाओ तहा खडहडिओ सीलपासाया ॥ ५२ ॥ जं न कयं गुरुवयणं इह तं तस्सेव मत्थए पडियं । अहहो ! अणत्थहेऊ आणाभंगो महापावो ॥५३॥ पेच्छसु तीए मोसारियाए तह सावियाए' होऊण । सवसीकओ वराओ अहो ! हु थीचरियगहणमिमं ॥ ५४ ॥ सो तारिस वि निस्संगसाहुचूडामणी वि परिवडिओ | गुरुजणवयणा इक्कमतरुणो अज्ज वि कुसुममेयं ॥ ५५ ॥ पुरओ जह सा नयरी पविसित्तु खडक्किया दुवारेणं । उक्खणिय पाउयाओ सव्वा भंजाविया तेण ॥५६॥ तह सव्वं वित्थरओ नेयं गंथंतराओ चरियमिमं । इह पुण एत्तियमेत्तं पसाहगं पत्थुयत्थस्स ॥५७॥
॥ कूलवालाख्यानकं समाप्तम् ॥१०१॥
जइ विहु वज्जियसंगो कुलेण चंगो तवेण तणुयंगो । तह वि हु एगो परिवडइ वसह ता सुगुरुकुलवासे ॥१॥ स्वप्रत्यनीकरमणीकृतदोषभावादेकाकिनो व्रतवतो विहृतिर्विरुद्धा |
यस्मादनागमरुचेर्यतनावतोऽपि दोषाः कदाचिदनयोरिव सम्भवन्ति ॥ १ ॥
॥ इति श्रीमदादेवसूरिविरचितवृत्तावाख्यानकमणिकोशे साधोरैकाकित्वविहारदोष वर्णनस्त्रयस्त्रिंशत्तमो
ऽधिकारः समाप्तः ॥३३॥
[ ३४. साधुदर्शन महागुणवर्णनाधिकारः ]
एतच्च कूलवालकसाधुदर्शनमुभयेषामप्ययोग्यत्वाद् गुणाय नाभवत् । यत्र पुनरुभयोर्गुणवत्ता भवति तत्र साधुदर्शनं गुणाय भवतीत्येतदाह
साहूण दंसणं पि हु गुणावहं सोम- सन्तरूवाणं ।
जह तकरस्स तह भिगु -[ उ ] वरोहियपुत्तजुयलस्स ||४३||
व्याख्या –‘साधूनां’ मुनीनां 'दर्शनमपि' अवलोकनमपि आस्तां सम्भाषणादि 'गुणावहं' गुणजनकमेव । हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । कीदृशामित्याह--‘सौम्य शान्तरूपाणां' सौम्यम् - आन्तरकोपनिग्रहात् शान्तं - बहिरपि कोपविकारविरहाद्-रूपम् - आकाशे येषां
१. मृषार्यया तथाभाविकया भूत्वा ।
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