Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 375
________________ २८८ अवरं च आख्यानकमणिकोशे ओयरिऊणं तरुणी सरम्मि पक्खालिऊण मुहमाई । परिविहियपाणचित्ती फलाइणा गमइ तं दियहं ॥ १०२ ॥ पुणरवि तहेव चडि चिट्टड् तरुणो लयंतरालम्भि | संझासमए भारुंडयक्खिणो पेच्छइ तहेव || १०३ || चितियमिमिणा पडेमि पोरिसं पउणयामि निवधूयं । गेहे गओ पडिम्सामि तत्थ पुणरचि अणत्थम्मि || १०४॥ पणीभूओं पत्ताणि गिन्दिउं तस्स अमयफलतरुणो । सिंहलदीवे गमणं निवेइवं जेण जणयस्स ॥ १०५ ॥ चरणे अप्पयं बंधिऊण भारुडपक्खिणो तस्स । वसिओ रयणीचिगमे नीओ सरणेण तेण तहिं ॥ १०६ ॥ छिविऊण पडद्यमिमो पत्तो हईवइम्स पासम्मि । कयसमुचियपडिवत्ती पुट्टो रन्ना कुसलवत्तं ॥ १०७॥ संकासमए काराविऊण बलिमंडलाइयमसेसं । वाहरिय मयणरेहं नयणचिगिक्छं कुणइ सव्वं ॥ १०८ ॥ जाया तब निरुया सोहण दिवसे विवाहिओ कन्नं । दिन्नं रज्जस्सऽद्धं रन्ना पत्तो पसिद्धिं च ॥ १०६ ॥ । भुंज पंचपयारे विसए सह तीए नेहसाराए । अह अन्नया य पत्तो वसुदत्तो विहिनिओगेण ॥ ११० ॥ ववहरणत्थं वहणेण तयणु निवदंसणत्थमत्थाणे । पत्तो महरिहमणहरपाहुडहत्यो सपरिवारो ॥ १११ ॥ पेच्छय विरायंतं सहोयरं तत्थ रायलच्छीए । सम्मं वियाणिऊणं घसक्किओ माणसे सहसा ॥ ११२ ॥ चिंतइ य कूरकम्मो जइ कह वि हु मज्झ चइयरं एसो । रन्नो पयडइ ता हं हियसव्वस्सो विणस्सामि ॥११३॥ ताकेणावि उवाएण मरइ जइ एस तो भवे लट्ठ । एसो पट्टचित्तो चवहरइ अभिन्नमुहराओ ॥ ११४ ॥ अह अन्नदिणे विजम्मि जाइ मायाए बंधुदत्तगिहे । पुच्छियकुसलोदंता परोप्परं जाव अच्छेति ॥ ११५ ॥ ता लहुएणं भणिओ सहोयरे भाय ! ताव कइ वि दिणे । मा मं जाणाविज्जसु रन्नो तेण वि य पडिवन्नं ॥ ११६॥ इय ते सकम्मनिश्या सहोयरा दो वि तम्मि दीवम्मि । निम्मल-कलुसियहियया गमंति दिवसाणि भणियं च ॥ ११७ ॥ कसमई कसं चि विमला विमलं परं पि पिच्छंति । अत्ताणयं व आयरसए व्व जेणं जणो नियइ ॥ ११८ ॥ जाणंति पियं चियवोत्तुमुत्तमा अमयमुत्तिणो नृणं । किं अमयाओ अन्नं झरिउं मयलंछणो मुणइ ? ॥११९॥ अह अन्नदिणे विम्हइयमाणसो तम्मि चेव अत्थाणे । नियए सहोयरे निभ्गयम्मि रायाइपच्चक्खं ॥ १२० ॥ भणइ सविसायहियओ वमुदत्तो मद्दिऊण करजुयलं । को सक्कड़ वन्नेउं नयर सिरिं एगजीहाए ? ॥ १२१ ॥ परमिह विरूवमेगं पयई एसा हवे पयावइणो । जं पडिपुन्नं एसो न कुणइ कत्थइ सनिम्माणं ॥ १२२॥ sara एसो कुणमाणो अन्नया नरिंदेण । भणिओ विजणे भो भद्द! किं विरूवं मह पुरीए ? ॥ १२३ ॥ नीससिउं सविसायं भणियं नरनाह! अकहणिज्जं पि । तुज्झ कहिज्जइ नवरं पयासियव्वं न कस्सावि ॥ १२४ ॥ विन्ने नरवणा भणियं पहु! एस तुज्झ जामाऊ । अम्ह पुरे सुपसिद्धो अंगरुहो वेज्जडुंबस्स || १२५ ॥ तं सोउं नरनाहो चिंतइ एयं पि घडइ जुत्तीए । अन्नह कह मह धूया परिचत्ता सव्ववेज्जेहिं ? ॥ १२६ ॥ एएणं पन्नविया ? ता जइ सच्चं जहा इमो भणइ । ता हयविहिणा अम्हे विडंबिया पावकम्मेण ॥ १२७ ॥ एवं विसन्नहियओ पुट्टो राया सुबुद्धिसचिवेण । देव ! किमेयं ? तेण वि कहियं वसुदत्तवणिभणियं ॥ १२८ ॥ सचिवेणुतं देव! एवमेयं तओ गुरू अयसी । ववहारियाणं ठाणं जमिमा दीवम्मि तुह नयी ॥ १२६ ॥ ता जावऽज्ज वि न भवइ पायडमेयं नरिंद ? जणमज्झे । तावोवायं चिंतसु एत्थत्थे भणइ तो राया ॥ १३० ॥ तुममेव वुद्धिमंतो ताजं किच्चं तमेव मे कहसु । तेण वि भणियं पच्छन्नमेव वाचायसु इमं ति ॥ १३१ ॥ तं सोउं नरनाहो दुहिया दुक्खेण दुक्खिओ अहियं । कह कायव्वा एसा मयम्मि जामाउए दुहिया ? १३२॥ पडिवन्ने नरवणा रहम्मि पुट्टा इमं मयणरेहा । किं अकुलीणवियारो सच्चविओ को वि कहया वि ॥ १३३ ॥ नियपणो ? पुत्ती तीयुत्तं ताय ! चंदबिंबम्मि । अज्ज वि अस्थि कलंको न उणो पइणो मह कयाइ ॥ १३४॥ सरलो सच्चपन्नो पुव्वाभासी कयन्नुओ सुहओ । परउवयारेक्करओ चाई सूरो महासत्तो ॥ १३५ ॥ किं बहुणा ? कोउयहारिएण विहिणा विणिम्मिओ एसो । केवलगुणमयमुत्ती पडो व्व परगुज्झरक्खट्टा ॥१३६॥ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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