Book Title: Akhyanakmanikosha
Author(s): Nemichandrasuri, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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१६५
२३. व्यसनशतजनकयुवत्यविश्वासवर्णनाधिकार भावभट्टिकाख्यानकम् तुह चेव निद्धमयणम्स सेट्ठिणो भाणुणो अहं धृया । परिणेऊण जमेयं सुद्धायारा वि परिहरिया ॥४९॥ न ह एत्तिएण तुट्टो दसणमागेवा महऽन्नपि । ता णेण कयं सन्नं केणावि वुहेण जं भणियं ॥५०॥ न ह एत्तिएण ठाही गयणयल मइलिऊण घणनिवहो । कायव्वा अज्ज वि रायहंसमुन्ना सरुच्छंगा ॥५१॥ ता संपइ सधा हं कृरग्गहण करिम्समलमिमिणा । चाविजंति न मिरिया जह चणया ताय : पयडमिणं ॥५२॥ छडुस भलिमवराणं महिलाणं गयनिमीलियं काउं । जा सकलंका जीयंति ताय ! ता कुणस मह सुद्धिं ॥५३॥ इय सोऊणं सव्वा सराय-पउरो जणो तहिं मिलिओ। जा कोवि किंपि पभणइ पहाणपुरिसेहिं ता वुत्तं ॥५४॥ जा एवं कयनियमा सा कावि हु होउ किं वियप्पेण ? खिप्पड सुगपियभवणे किमियरदिव्वेहिं कायव्वं ॥५५॥ न्हाया कयवलिकम्मा धवलविलेवणविलित्तसव्वंगा । धवलाहरणविहूसियसव्वावयवा धवलवसणा ॥५६॥ धवलप्पमृणपरिमलमिलंनभमरउलरुहरगलमाला । धवलसरोरुहसयवत्तकुसुमसिरधरियसेहरया ॥५७|| इय सन्चंगीणमहग्यवत्थसच्चवियफारसिंगारा । अणुगम्ममाणमम्गा नरवइ-नायरयनिबहेण ॥५८॥ निरवजवजिराउजमणहरागवपूरियदियंता । पढमाणभट्ट-बंदियणबहलहलबोलमुहलनहा ।।५९॥ सवियक-सविम्हय-सदय कोउगविपत्तनायरजणम्स । गरुययरचडयरेणं पत्ता सुरपियभवणमेसा ॥६०॥ सो उण जाखो सन्निहियपाडिहरो निसाए बलवंतो । पालइ पयत्तओ पाणिनिवहमिह सुइसमायारं ॥११॥ दुटुं रुट्टो निग्गहइ गहिय जमजीहसच्छहच्छुरिओ। दिवसम्मि अकिंचिकरो पयई एसा जणपसिद्धा ॥२॥ खिविऊण जवखभवणे भावट्टियजुवइमुभडकवाडे । ढक्किय ढढसमेयं काउं बलिओ नयरिलोओ ॥१३॥ सो तं द? दट्ठोट्टभिउडिभासुरकरालभालयलो । आयड्डिउमसिधेणुं पाविट्टे ! सुमरमु तमिढें ॥६४॥ एवं भसविया वि हु सविणयमवलंबिऊण थिरचित्तं । पभणइ भयवं ! एवं को किर मह उवरि संरंभो ? ॥६५॥ अहमेगघायसझा महापभावो तुमं च दयरसियो । ता विन्नत्ति नियुणसु मह पच्चासन्नमरणाए ॥६६॥ संपइ मह मरणं पिहु सलाहणिज्जं जयम्मि जं दुलहं । एएण निमित्तेणं संजायं दंसणं तुम्ह ।।६७|| ता संपइ होसु थिरो जाव सुदिढे करेमि जियलोयं । तुह चिंतण-भासण-दंसणेहिं दुलहेहऽपुन्नाणं ॥६॥ साणुणयं सप्पणयं तह कह वि हु तीए भणिइनिउणाए । सो भणिओ जह जाओ मणयं उवसंतकोवभरो ॥६९॥ भणियं च तेण भद्दे ! जीयं मोत्तूण वरसु किं पि वरं । जं सावराहजीयं कइया वि न दिन्नपुव्य मे ॥७०|| तो तीउत्तं निमुणसु कहाणयं किंपि तुह कहेमि अहं । तेणुतं निस्संका कहसु अहं अवहिओ एस ॥१॥
[विक्रमादित्यनृपाख्यानकम् ] अत्थि अवंतीजणवयपरमालंकारसन्निभा भयवं! । परमच्छेरयभूया सव्वेसि गुणाण कुलभवणं ॥७२॥ तथा हि
तं विन्नाणं भुवणे वि नत्थि तं कोउयं जए नस्थि । तं साहसं पि अवरत्थ नत्थि कुहगं पि तं नत्थि ॥७३॥ चाओ नाओ वा भो धाउव्वाओ विसिट्ठसमवाओ । तह य रसायणवाओ जोगिणिवाओ य गह्वाओ ॥७४॥ कि बहुणा नयनिउणं जोइज्तो विवेयचक्खूहिं । सो कोवि हु नत्थि गुणो पाएणं तीए जो नत्थि ॥७५॥ जम्हा हरिसट्टाणं परमुज्जयणी जणम्मि नयरी सा । तम्हा तं नयनिउणे परमुज्जयणी बुहा बेति ॥७६|| तं नयरिमसमसाहसवसीकयाणहपभावभूयतिगो । पालइ पयडपरक्कमसमुवज्जियकित्तिजसपसरो ॥७॥ हयविक्कमो वि गयविक्कमो वि रहविक्कमो वि सो तत्थ । तह सव्वविकमो वि हु जाओ नयविक्कमो जेण ||७८॥ • महिवलयभासणाओ कमलाण वियासणाओ सव्वत्तो । दुन्नयतमहरणाओ आइच्चो विकमाइच्चो ॥७९।। चाई सूरो पडिवन्नवच्छलो बुद्धिविजियसरमंती । दक्खिन्ननिही निययं परोक्यारेकगुणरसिओ ।।८।। अह तं कइया वि निवं अणेगभडकोडिसंकडत्थाणे । कणयमयदंडहत्थो पडिहारो विन्नवइ एवं ।।८१।। सियभूइगुंडियतणू लक्खणपडिपुन्ननरकवालकरो। डमडमियडमरुयधरो खंधोवरि धरियखटुंगो ।।२।।
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