________________ भूतमान निरूपण] का अर्थ मर्यादा है और रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करना अरूपी को नहीं, यही इसकी मर्यादा-अवधि है / अतएव जो ज्ञान मर्यादा सहित-रूपी पदार्थों को जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं।। मनःपर्यवज्ञान-मन:-परि-अव इन तीन शब्दों से निष्पन्न 'मनःपर्यव' शब्द है / सज्ञी जीवों द्वारा काययोग से गहीत और मन रूप से परिणामित मनोवर्गणा के पुद्गलों को मन कहते हैं। 'परि' का अर्थ है सर्व प्रकार से और 'अव्' धातु रक्षण, गति, कांति, प्रीति, तृप्ति और अवगम (बोध) अर्थ में प्रयुक्त होती है / उक्त अर्थों में से यहाँ अवगम अर्थ में अव् धातु का प्रयोग हुआ है / अतएव संज्ञी जीवों द्वारा किए जाने वाले चिन्तन के अनुरूप मन के परिणामों को सर्व प्रकार से अवगम करना-जानना मनःपर्यवज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान-संपूर्ण ज्ञेय पदार्थों को (उनकी त्रिकालवर्ती गुण-पर्यायों सहित) विषय करने वाले, जानने वाले ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। पांच ज्ञानों का क्रम केवलज्ञान के अतिरिक्त शेष मतिज्ञान प्रादि चार ज्ञानों के अनेक अवान्तर भेद हैं, जिन्हें जिज्ञासू जन नन्दीस्त्र प्रादि से जान लेवें / प्रासंगिक होने से पांच ज्ञानों के क्रमविन्यास का कारण स्पष्ट किया जाता हैं। सर्वप्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का निर्देश करने का कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान सम्यक अथवा मिथ्या रूप में, न्यूनाधिक मात्रा में, समस्त संसारी जीवों में सदैव रहते हैं। इन दोनों ज्ञानों के होने पर ही शेष ज्ञान होते हैं। इसीलिये इन दोनों का सर्वप्रथम निर्देश किया है और दोनों में भी पहले मतिज्ञान के उल्लेख का कारण यह है कि मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। मति और श्रत ज्ञान के अनन्तर अवधिज्ञान कहने का कारण यह है कि इन दोनों के साथ अवधिज्ञान की कई बातों में समानता है / यथा—जैसे मिथ्यात्व के उदय से मति और श्रुत ज्ञान मिथ्यारूप में परिणत होते हैं, उसी प्रकार अवधिज्ञान भी मिथ्यारूप में परिणत हो जाता है। तथा जब कोई विभंगज्ञानी सम्यग्दृष्टि होता है, तब तीनों ज्ञान एक साथ सम्यक् रूप में परिणत होते हैं / मति एवं श्रुत ज्ञान की लब्धि की अपेक्षा छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक स्थिति है, अवधिज्ञान की भी उतनी ही स्थिति है। अवधिज्ञान के अनन्तर मनःपर्यवज्ञान का निर्देश करने का कारण यह है कि दोनों में प्रत्यक्षत्व आदि की समानता है। जैसे अवधिज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, विकल है, क्षयोपशमजन्य है एवं रूपी पदार्थ इसका विषय है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान भी है। केवलज्ञान सबसे अंत में प्राप्त होता है, अतएव उसका निर्देश सबसे अंत में किया है। इन पांच ज्ञानों में प्रादि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और अंतिम केवलज्ञान ज्ञानावरणकर्म के सर्वथा क्षय से पाविर्भूत होने के कारण क्षायिकभाव रूप है। 1. केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण, अनन्त और निरावरण भी अर्थ होते हैं। इसका अर्थ ग्रन्थान्तरों से ज्ञात करें। 2. श्रुतं मतिपूर्व ............. / -तत्त्वार्थसूत्र 120 6. मतिश्रुतावधयो विपर्यमश्च / -तत्त्वार्थसूत्र 1232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org