________________ 102 अनुयोगद्वारसूत्र यह पूर्व में कहा है कि तीन आदि प्रदेशों में स्थित द्रव्य प्रानुपूर्वी हैं, एक-एक प्रदेश में स्थित अनानुपूर्वी और दो-दो प्रदेशों में स्थित द्रव्य प्रवक्तव्यक हैं और ये तीनों द्रव्य सर्वलोकव्यापी हैं / अत: विचार करने पर आनुपूर्वी द्रव्य सबसे अल्प सिद्ध होते हैं। वह इस प्रकार लोक असंख्यातप्रदेशी हैं। लेकिन उन असंख्यात प्रदेशों को असत्कल्पना से 30 मानकर उन प्रदेशों के स्थान पर 30 रखें। इन तीस प्रदेशों में एक-एक अनानुपूर्वी द्रव्य अवगाहित है, अतः अनानुपूर्वी द्रव्यों की संख्या 30 तथा एक-एक प्रवक्तव्यक द्रव्य लोक के दो-दो प्रदेशों में अवगाढ होने के कारण उनकी संख्या 15 तथा मानुपूर्वी द्रव्य लोक के तीन-तीन प्रदेशों में अवगाढ होने से उनकी संख्या 10 अाती है। बहुत से आनुपूर्वी द्रव्य तीन से लेकर असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ हैं, अत: उनकी संख्या और भी कम होनी चाहिए / इस प्रकार विचार करने पर वे कम ही प्राप्त होते हैं। उत्तर यह है कि जो अाकाशप्रदेश एक प्रानुपूर्वी द्रव्य से अवगाढ होते हैं, वे ही यदि अन्य प्रानुपूर्वी द्रव्यों से अवगाढ नहीं हों तो पूर्वोक्त कथन युक्तिसंगत माना जा सकता है, परन्तु ऐसा है नहीं / क्योंकि एक आनुपूर्वी द्रव्य में जो तीन आकाशप्रदेश उपयुक्त होते हैं, वे ही तीन प्रदेश अन्य-अन्य ग्रानुपुर्वी द्रव्यों द्वारा भी अवगाढ होते हैं। इसलिये लोक का एक-ाक प्रदेश अनेक त्रिकसंयोगी प्रानपूर्वी द्रव्यों का प्राधार होता है। इसी प्रकार से चत: संयोगी यावत असंख्यात संयोगी द्रव्यों के विषयों में भी जानना चाहिये / इस प्रकार एक-एक आकाशप्रदेश अनेकानेक त्रि-अणुकादि प्रानुपूर्वी द्रव्यों से संयुक्त होता है। प्रानुपूर्वी द्रव्य रूप प्राधेय के भेद से प्रत्येक प्रदेश रूप आधार का भी भेद हो जाता है। क्योंकि आकाशप्रदेश जिस स्वरूप से एक आधेय से उपयुक्त होते हैं, उसी स्वरूप से वे दूसरे प्राधेय से उपयुक्त नहीं होते हैं। यदि ऐसा ही माना जाये कि अाकाशप्रदेश जिस स्वरूप से एक ग्राधेय से संयुक्त होते हैं, उसी स्वरूप से वे अन्य प्राधेय से भी संयुक्त होते हैं तो एक प्राधार में उनकी अवगाहना होने से उन अनेक प्राधेयों में घट में घट के स्वरूप की तरह एकता प्रसक्त होगी। इसलिये अपने स्वरूप की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी लोक में जितने भी त्रिकुसंयोगादि से लेकर असंख्यात संयोग पर्यन्त के संयोग हैं, उतने ही प्रानुपूर्वी द्रव्य हैं / ये प्रानुपूर्वी द्रव्य तीन आदि संयोगों के बहुत होने के कारण बहुसंख्या वाले हैं और अवक्तव्यक द्रव्य द्विक संयोगों के कम होने के कारण कम हैं तथा अनानुपूर्वीद्रव्य लोकप्रदेशों की संख्या के बराबर होने के कारण उनसे भी कम ही हैं। अनुगमगत भावप्ररूपरणा 157. गम-ववहाराणं आणुपुत्वीदवाई कयरम्मि भावे होज्जा ? तिन्नि वि णियमा सादिपारिणामिए भावे होज्जा / [157 प्र.] भगवन् ! नैगम-व्यवहारनयसंमत आनुपूर्वीद्रव्य किस भाव में वर्तते हैं ? [157 उ.] आयुष्मन् ! तीनों ही (आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी, प्रवक्तव्यक) द्रव्य नियमतः सादि पारिणामिक भाव में वर्तते हैं / विवेचन--सूत्रार्थ सुगम है। इस भावप्ररूपणा का तात्पर्य यह है कि तीन आदि प्रदेशों में प्रानुपूर्वी द्रव्यों का अवगाहपरिणाम, एक प्रदेश में अनानुपूर्वी द्रव्यों का अवगाहपरिणाम और द्विप्नदेशों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org