________________ नामाधिकार निरूपण] [211 281. से कि तं अपसत्थे ? __ अपसत्थे कोहेणं कोही, माणेणं माणी, मायाए मायी, लोमेणं लोभी / सेतं अपसत्थे / से तं भावसंजोगे। से तं संजोगेणं / [281 प्र.] भगवन् ! अप्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [281 उ.] अायुष्मन् ! (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अप्रशस्त (अशुभ)भाव हैं। अतः इन भावों के संयोग से) जैसे क्रोध के संयोग से क्रोधी, मान के संयोग से मानी, माया के संयोग से मायी और लोभ के संयोग से लोभी नाम होना अप्रशस्तभावसंयोगनिष्पन्न नाम हैं। इसी प्रकार से भावसंयोगजनाम का स्वरूप और साथ ही संयोगनिष्पन्न नाम की वक्तव्यता जानना चाहिये। विवेचन--सूत्र में भावसंयोगजनाम का प्रशस्त और अप्रशस्त भेद की अपेक्षा वर्णन करके संयोगनाम की वक्तव्यता की समाप्ति का संकेत किया है। प्रशस्त और अप्रशस्त भाव का आशय-धों को भाब कहते हैं / यह सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं। अजीव द्रव्यों में तो अपने-अपने स्वभाव का परित्याग न करने के कारण प्रशस्त, अप्रशस्त जैसा कोई भेद नहीं है / यह भेद संसारस्थ जीवद्रव्य की अपेक्षा से है / ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि स्वाभाविक गुण शुभ और पवित्रता के हेतु होने से प्रशस्त और क्रोधादि परसंयोगज, विकारजनक एवं पतन के कारण होने से अप्रशस्त हैं / इन्हीं दोनों दृष्टियों और अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर भावसंयोगजनाम के प्रशस्त और अप्रशस्त भेद किये हैं और सुगमता से बोध के लिये क्रमशः ज्ञानी, दर्शनी, कोधी, लोभी आदि उदाहरणों द्वारा उन्हें बतलाया है / प्रमाणनिष्पन्ननाम 282. से कि तं पमाणेणं ? पमाणेणं चउम्विहे पण्णत्ते / तं जहा-णामप्पमाणे 1 ठवणयमाणे 2 दव्यप्पमाणे 3 भावप्पमाणे 4 // [282 प्र.] भगवन् ! प्रमाण से निष्पन्न नाम का क्या स्वरूप है ? [282 उ.] अायुष्मन् ! प्रमाणनिष्पन्न नाम के चार प्रकार हैं। यथा-१. नामप्रमाण से निष्पन्न नाम, 2. स्थापनाप्रमाण से निष्पन्न नाम, 3. द्रव्यप्रमाण से निष्पन्न नाम, 4. भावप्रमाण से निष्पन्न नाम / विवेचन-इस सूत्र में प्रमाणनिष्पन्न नाम का भेदों द्वारा निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा वस्तु का निर्णय किया जाता है अर्थात् जो वस्तुस्वरूप के सम्यग् निर्णय का कारण हो उसे प्रमाण कहते हैं। इससे निष्पन्न नाम को प्रमाणनिष्पन्ननाम कहते हैं / ज्ञेय वस्तु नाम आदि चार प्रकारों द्वारा प्रमाण की विषय बनने से प्रमाणनाम के नाम, स्थापना आदि चार प्रकार हो जाते हैं / उनका क्रमानुसार आगे वर्णन किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org