________________ 334] [अनुयोगद्वारसूत्र बद्ध औदारिकशरीरों की संख्या-बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात हैं / यद्यपि बद्ध औदारिकशरीर के धारक जीव अनन्त हैं। क्योंकि औदारिकशरीर मनुष्यों और पृथ्वीकायिक आदि पांच प्रकार के एकेन्द्रियों से लगाकर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पाया जाता है। इनमें भी अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं / किन्तु औदारिकशरीरधारी जीव दो प्रकार के हैं--१. प्रत्येकशरीरी, 2. अनन्तकायिक / प्रत्येकशरीरी जीवों का अलग-अलग औदारिकशरीर होता है। उनकी संख्या असंख्यात है और जो अनन्तकायिक हैं, उनका प्रौदारिकशरीर पृथक्-पृथक् नहीं होता किन्तु अनन्त जीवों का एक ही होता है। इसलिए औदारिकशरीरी जीव अनन्तानन्त होते हुए भी उनके शरीरों की संख्या असंख्यात ही है। ___ कालापेक्षया बद्ध प्रौदारिकशरीरों की संख्या असंख्यात उत्सपिणियों और असंख्यात अवसपिणियों' से अपहृत होने योग्य बताई है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि उत्सर्पिणी और अवपिणी काल के एक-एक समय में एक-एक प्रौदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवपिणी व्यतीत हो जाएं / असंख्यात के असंख्यात भेद होने से असंख्यात उत्सपिणी और असंख्यात अवपिणी काल के समय असंख्यात हैं, अतएव बद्ध औदारिकशरीर भी असंख्यात ही हैं। क्षेत्रापेक्षया बद्ध औदारिक-शरीरों की संख्या का प्रमाण बताने के लिये सूत्र में कहा है-- बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात लोक-प्रमाण हैं / इसका अर्थ यह हुआ कि यदि समस्त बद्ध औदारिकशरीरों को अपनी-अपनी अवगाहना से परस्पर अपिंड रूप में (पृथक्-पृथक) आकाशप्रदेशों में स्थापित किया जाए तो असंख्यात लोकाकाश उन पृथक्-पृथक् स्थापित शरीरों से व्याप्त हो जाएँ / अर्थात् एकएक लोकाकाशप्रदेश पर एक-एक शरीर रखा जाए तो क्रमशः रखने पर भी वे बद्ध प्रौदारिकशरीर इतने और बचे रहते हैं कि जिन्हें क्रमशः एक-एक प्रदेश पर रखने के लिये प्रसंख्यात लोकों की आवश्यकता होगी। मुक्त औदारिकशरोरों की संख्या-मुक्त औदारिकशरीरों का अनन्तत्व काल, क्षेत्र और द्रव्य की अपेक्षा इस प्रकार समझना चाहिये कालापेक्षया उन मुक्त औदारिकशरीरों का परिमाण अनन्त उत्सपिणियां-अवसपिणियों के अपहरण काल के बराबर है। अर्थात उत्सपिणी और अवसपिणी कालों के एक-एक समय में एकएक मुक्त औदारिकशरीर का अपहरण किया जाए तो अपहरण करने में अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां व्यतीत हो जाएंगी। क्षेत्रापेक्षया मुक्त प्रौदारिकशरीरों का प्रमाण अनन्त लोक-प्रमाण है / अर्थात एक लोक में असंख्यात प्रदेश हैं / ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, इतने मुक्त औदारिकशरीर द्रव्यापेक्षया मुक्त औदारिक शरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं / एतद्विषयक शंका-समाधान इस प्रकार है१. दस कोडाकोडी सागरोपम काल का एक उत्सर्पिणी काल और उतने ही सागरोपमों का एक अवपिणी काल हाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org