________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [343 असुरकुमारों के बद्ध और मुक्त शरीरों का जो परिमाण वताया है, वही तज्जातीय होने से शेष भवनवासियों के शरीरों का भी समझ लेना चाहिये। पृथ्वी-अप-तेजस्कायिक जीवों के बद्ध-मुक्त शरीर 420. [1] पुढविकाइयाणं भंते ! केवया ओरालियसरीरा पन्नसा ? गोयमा ! दुविहा पं० / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / एवं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भागियव्वा / पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया बेउब्वियसरीरा पन्नत्ता? गोयमा! दुविहा पं० / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्य णं जे ते बद्धेल्लया ते स्थि / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियस्वा। आहारगसरीरा वि एवं चेव भाणियब्धा / तेयग-कम्मगसरीराणं जहा एसि चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियव्या। [420-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गये हैं ? [420.1 उ.] गौतम ! इनके औदारिकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त। इनके दोनों शरीरों की संख्या सामान्य बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों जितनी जानना चाहिये / [प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? [उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं-बद्ध और मुक्त / इनमें से बद्ध तो इनके नहीं होते है और मुक्त के लिए प्रौदारिकशरीरों के समान जानना चाहिये / आहारकशरीरों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार जानना चाहिये / इनके बद्ध और मुक्त तैजसकार्मण शरीरों की प्ररूपणा भी इनके बद्ध और मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए। [2] जहा पुढविकाइयाणं एवं आउकाइयाणं तेउकाइयाण य सम्वसरोरा भाणियव्वा / [420-2] जिस प्रकार की वक्तव्यता पृथ्वीकायिकों के पांच शरीरों की है, वैसी ही वक्तव्यता अर्थात् उतनी ही संख्या अप्कायिक और तेजस्कायिक जीवों के पांच शरीरों को जाननी चाहिए / विवेचन--ऊपर पृथ्वीकायिक, प्रकायिक, तेजस्कायिक जीवों के बद्ध और मुक्त शरीरों का परिमाण बतलाया है। पृथ्वीकायिकों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण बताने के लिये प्रोधिक औदारिकशरीरों का संकेत दिया गया है / प्रज्ञापनासूत्र के शरीरपद के अनुसार उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ___ बद्ध शरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा वे असंख्यात उत्सपिणियों और अवपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रतः वे असंख्यलोक प्रमाण हैं / मुक्त औदारिकशरीर अनन्त हैं / कालतः अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रत: वे अनन्त लोकप्रमाण है तथा द्रव्यत: वे अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org