________________ सूत्रस्पशिकनियुक्ति निरूपण [465 17. अनभिहितदोष-स्वसिद्धान्त में जो पदार्थ ग्रहण नहीं किये गये, उनका उपदेश करना / जैसे सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष से अतिरिक्त तीसरा तत्त्व कहना / 18. अपदोष- अन्य छन्द के स्थान पर दूसरे छन्द का उच्चारण करना जैसे—मार्या पद के बदले वैतालीय पद कहना / 19. स्वभावहीनदोष-जिस पदार्थ का जो स्वभाव है, उससे विरुद्ध प्रतिपादन करना / जैसे-अग्नि गीत है, अाकाश मूर्तिमान है, ये दोनों ही स्वभाव से हीन हैं। 20. व्यवहितदोष---जिसका कथन प्रारम्भ किया है, उसे छोड़कर जो प्रारम्भ नहीं किया, उमकी व्याख्या करके फिर पहले प्रारम्भ किये हुए की व्याख्या करना / 21. कालदोष .... भूतकाल के वचन को वर्तमान काल में उच्चारण करना / जैसे—'रामचन्द्र ने वन में प्रवेश किया, ऐमा कहने के बदले 'रामचन्द्र वन में प्रवेश करते हैं' कहना। 22. यतिदोष --अनुचित स्थान पर विराम लेना-रुकना अथवा सर्वथा विराम ही नहीं लेना / 23. छविदोष –छवि अलंकार विशेष से शून्य होना ! 24. समयविरुद्धदोष---स्वसिद्धान्त से विरुद्ध प्रतिपादन करना। 25. वचनमात्रदोष-निर्हेतुक वचन उच्चारण करना / जैसे कोई पुरुष अपनी इच्छा से किसी स्थान पर भूमि का मध्यभाग कहे। 26. अर्थापत्तिदोष-जिम स्थान पर अपत्ति के कारण अनिष्ट अर्थ की प्राप्ति हो जाये / जैसे—घर का मुर्गा नहीं मारना चाहिये, इस कथन से यह अर्थ निकला कि दूसरे मुर्गों को मारना चाहिये। 27. अममासदोष—जिस स्थान पर समास विधि प्राप्त हो वहाँ न करना अथवा जिस समास की प्राप्ति हो, उस स्थान पर उस समास को न करके अन्य समास करना असमासदोष है / 28. उपमादोष-हीन उपमा देना, जैसे-मेरु सरसों जैसा है, अथवा अधिक उपमा देना, जैसे- सरसों मेस जैसा है अथवा विपरीत उपमा देना, जैसे—मेरु समुद्र समान है। यह उपमादोष है। 29. रूपकदोष---निरूपणीय मुल वस्तु को छोड़कर उसके अवयवों का निरूपण करना, जैसेपर्वत के निरूपण को छोड़कर उसके शिखर प्रादि अवयवों का निरूपण करना या समुद्रादि किसी अन्य वस्तु के अवयवों का निरूपण करना / . 30. निर्देशदोप----निदिष्ट पदों की एकवाक्यता न होना / 31. पदार्थदोष-वस्तु के पर्याय को एक पृथक् पदार्थ रूप में मानना जैसे---सत्ता वस्तु की पर्याय है किन्तु वैशेषिक उसे पृथक् पदार्थ कहते हैं / 32. संधिदोष --जहाँ संधि होना चाहिये, वहाँ संधि नहीं करना, अथवा करना तो गलन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org