Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 517
________________ नय निरूपण] [467 नैगमादि नय भी प्रायः पदार्थ प्रादि का विचार करने वाले होने से जब पदार्थ प्रादि को ही विषय करते हैं, तब इस दृष्टि से वे सूत्रस्पशिकनियुक्त्यनुगम के अन्तर्गत हो जाते हैं / इस प्रकार जब सूत्र, व्याख्या का विषयभूत बनता है, तब सूत्र, सूत्रानुगम, सूत्रालापकनिक्षेप और सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगम ये सव युगपत् एक जगह मिल जाते हैं। स्वसमय आदि का अर्थ--सूत्र में आगत स्वममय आदि पदों का भावार्थ इस प्रकार है-- स्वसमयपद - स्वसिद्धान्तसम्मत जोवादिक पदार्थों का प्रतिपादक-बोधक पद / परसमयपद-परसिद्धान्त-सम्मत प्रकृति, ईश्वर आदि का प्रतिपादन करने वाला पद / बंधपद-परसमय-सिद्धान्त के मिथ्यात्व का प्रतिपादक पद। क्योंकि कर्मबंध एवं कुवासना का हेतु होने से वह बंध पद कहलाता है। मोक्षपद-प्राणियों के सद्बोध का कारण होने से तथा समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष का प्रतिपादक होने से स्वसमय मोक्षपद कहलाता है / अथवा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार के बंध का प्रतिपादन करने वाला पद वंधपद तथा कृत्स्नकर्मक्षय रूप मोक्ष का प्रतिपादक पद मोक्षपद कहलाता है। यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार की व्याख्या करने से बंध और मोक्ष ये दोनों पद स्वसमय पद से भिन्न नहीं हैं, अभिन्न हैं, तथापि स्वसमय पद का दूसरा भी अर्थ होता है, यह दिखाने के लिये अथवा शिष्य जनों को सुगमता से बोध कराने और उनकी बुद्धि को विशद—निर्मल बनाने के लिये पृथकपृथक् निर्देश किया है। इसीलिये सामाधिक का प्रतिपादन करने वाले सामायिक पद और सामायिक से व्यतिरिक्त नारक तिर्यचादि के बोधक नोसामायिक पद इन दोनों पदों का अलग-अलग उपन्यास किया है। ___ इस प्रकार से सूत्रस्पर्शिक नियुक्त्यनुगम के अधिकृत विषयों का निरूपण हो जाने से नियुक्त्यनुगम एवं साथ ही अनुगम अधिकार की वक्तव्यता की भी समाप्ति जानना चाहिये। नयनिरूपण की भूमिका 606. [अ] से कि तं गए ? सत्त मूलणया पण्णता। तं जहा ---णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरुढे एवंभूते। तत्थ णेगेहि माहि मिणइ ति गमस्स य निरुत्ती 1 / सेसाणं पि नयाणं लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं // 136 / / संगहियपिडियत्थं संगहवयणं समासओ बिति 2 / वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वदन्वेसु३॥ 137 // पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयत्वो 4 / इच्छइ विसेसियतरं पच्चप्पण्णं णओ सदो 5 // 138 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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