Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 475
________________ बक्तव्यता निरूपण] [425 आघविज्जति सामान्य रूप से कथन करना, व्याख्यान करना / जैसे कि धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकाय द्रव्य हैं। अर्थात् धर्म, अधर्म, प्राकाश, जीव और पुद्गल, ये बहुप्रदेशी पांचों द्रव्य त्रिकाल अवस्थायी हैं। पण्णविज्जति-अधिकृत विषय की पृथक-पृथक लाक्षणिक व्याख्या करना / जैसे जीव और पुद्गल की गति में जो सहायक हो, वह धर्मास्तिकाय है, इत्यादि / पहविज्जति–अधिकृत विषय की विस्तृत प्ररूपणा करना / जैसे-धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं, इत्यादि / दंसिज्जति दृष्टान्त द्वारा सिद्धान्त को स्पष्ट करना / जैसे-यथा मछलियों को चलन में सहायक जल होता है / निदंसिज्जति–उपनय द्वारा अधिकृत विषय का स्वरूप निरूपण करना / जैसे-वैसे ही धर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गलों को गति में सहायक है। उवदंसिज्जति–समस्त कथन का उपसंहार करके अपने सिद्धान्त की स्थापना करना / जैसे-- इस प्रकार के स्वरूप वाले द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते हैं। परसमयवक्तव्यतानिरूपण 523. से कि तं परसमयवत्तव्वया ? परसमयवत्तव्वया जत्थ णं परसमए आविज्जति जाव उवदंसिज्जति / से तं परसमयवत्तवया। [523 प्र.] भगवन् ! परसमय वक्तव्यता क्या है ? [523 उ.] अायुष्मन् ! जिस वक्तव्यता में परसमय-अन्य मत के सिद्धान्त--का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे परसमयवक्तव्यता कहते हैं। विवेचन जिसमें स्वमत की नहीं किन्तु परसिद्धान्त की उसी रूप में व्याख्या की जाती है, जैसे सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में लोकायतिकों का सिद्धान्त स्पष्ट किया है-- संति पञ्चमहन्भूया, इहमेगेसि आहिया / पुढवी आऊ तेऊ (य) वाऊ आगास पंचमा / / ए ए पंच महाभूया तेब्भो एगोत्ति आहिया / ग्रह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो। नास्तिकों के मत के अनुसार सर्वलोकव्यापी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पांच महाभूत कहे गये हैं। इन पांच महाभूतों से जीव अव्यतिरिक्त -अभिन्न है। जब ये पंच महाभूत शरीराकार परिणत होते हैं, तब इनसे जीव नामक पदार्थ उत्पन्न हो जाता है और इनके विनष्ट होने पर इनसे जन्य जीव का भी विनाश हो जाता है। उक्त प्रकार का कथन पाहत दर्शन का नहीं किन्तु लोकायतिक मत प्रतिपादक होने से पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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