Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 493
________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] [443 554. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरबइरित्ते दव्वझोणे ? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दम्वज्झीणे सव्वागाससेढी। से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरिते दम्बज्झोणे / से तं नोआगमओ दव्वज्झीणे / से तं दध्वज्झोणे / [554 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? 554 उ.] आयुष्मन् ! सर्वाकाश-श्रेणि जायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण यह नोग्रागम से द्रव्य-अक्षीण का वर्णन है और इसका वर्णन करने से द्रव्य-अक्षीण का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-उपर्युक्त सूत्र 547 से 554 तक अक्षीण के नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन प्रकारों का वर्णन पूर्वोक्त अध्ययन के अतिदेश के अाधार से किया है। जिसका तात्पर्य यह है कि अध्ययन के प्रसंग में आवश्यक के अतिदेश के द्वारा जो और जैसा वर्णन किया है, वही और वैसा ही वर्णन यह अावश्यक के स्थान पर अक्षीण शब्द को रखकर कर लेना चाहिये, लेकिन इतना विशेष है कि ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण 'सर्वाकाश श्रेणी' रूप है। जिसका प्राशय यह है __ क्रमबद्ध एक-एक प्रदेश की पंक्ति को श्रेणो कहते हैं। अतएव लोक और अलोक रूप अनन्तप्रदेशी सर्व आकाशद्रव्य की श्रेणी में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार किये जाने पर भी अनन्त उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालों में क्षीण नहीं हो सकने से वह सर्वाकाश की श्रेणी उभयव्यतिरिक्तद्रव्य-अक्षीण है। भाव-प्रक्षीण 555. से कि तं भावज्झोणे ? भावज्झीणे दुविहे पण्णत्ते / तं तहा--आगमतो य नोग्रागमतो य / [555 प्र.] भगवन् ! भाव-प्रक्षीण का क्या स्वरूप है ? [555 उ.] अायुष्मन् ! भाव-प्रक्षीण दो प्रकार का है, यथा--१. पागम से, 2. नोआगम से। 556. से किं तं आगमतो भावज्झीणे ? आगमतो भावज्झोणे जाणए उवउत्ते / से तं आगमतो भावज्झीणे। 1556 प्र.] भगवन् ! आगमभाव-अक्षीण का क्या स्वरूप है ? [556 उ.] आयुष्मन् ! ज्ञायक जो उपयोग से युक्त हो - जो जानता हो और उपयोग सहित हो वह पागम की अपेक्षा भाव-अक्षीण है। 557. से कि तं नोआगमतो भावझीणे / नोआगमतो भावज्झीणे जह दोवा दोवसतं पइप्पए, दिप्पए य सो दोवो। दीवसमा आयरिया दिप्पंति, परं च दोवेति // 126 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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