Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 503
________________ सामायिक निरूपण [453 सूत्र में नामनिष्पन्न निक्षेप का लक्षण स्पष्ट करने के लिये 'सामाइए' पद दिया है / इसका अर्थ यह है कि पूर्व में अध्ययन, अक्षीण आदि पदों द्वारा किये गये सामान्य उल्लेख का पृथक्-पृथक् उसउस विशेष नामनिर्देश पूर्वक कथन करने को नामनिष्पन्न निक्षेप कहते हैं। सूत्रगत सामायिक पद उपलक्षण है, अतएव सामायिक की तरह विशेष नाम के रूप में चतुर्विशतिस्तव आदि का भी ग्रहण समझ लेना चाहिये / __ यह नामनिष्पन्न निक्षेप भी पूर्व की तरह नामादि के भेद से चार प्रकार का है। सूत्रकार जैसे विशेष नाम के रूप में सामायिक पद को माध्यम बना कर वर्णन कर रहे हैं, उसी प्रकार चतुर्विंशतिस्तव आदि नामों का भी वर्णन समझ लेना चाहिये / अब सूत्रोक्त कम से नामादि सामायिक का वर्णन करते हैं। नाम-स्थापना-सामायिक 594. जाम-ठवणाओ पुन्वभणियाओ। [594] नामसामायिक और स्थापनासामायिक का स्वरूप पूर्ववत् जानना चाहिये / विवेचन—सूत्र में नाम और स्थापनासामायिक की व्याख्या करने के लिये 'पुन्वभणियाओ' पद दिया है / अर्थात् पूर्व में नाम-पावश्यक और स्थापना-अावश्यक की जैसी वक्तव्यता है, तदनुरूप यहाँ प्रावश्यक के स्थान पर सामायिक पद का प्रक्षेप करके व्याख्या कर लेनी चाहिए। द्रव्यसामायिक 565. दवसामाइए वि तहेव, जाव से तं भवियसरीरदव्वसामाइए। [592] भव्यशरीरद्रव्यसामायिक तक द्रव्यसामायिक का वर्णन भी तथैव (द्रव्य-प्रावश्यक के वर्णन जैसा) जानना चाहिये / 596. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दवसामाइए? जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दबसामाइए पत्तय-पोत्थयलिहियं / से तं जाणयसरीरभवियसरीरवरित्ते दव्वसामाइए / से तं गोआगमतो दन्वसामाइए / से तं दव्वसामाइए। [596 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसामायिक का क्या स्वरूप है ? [596 उ.] आयुष्मन् ! पत्र में अथवा पुस्तक में लिखित 'सामायिक' पद ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्य सामायिक है। इस प्रकार से नोग्रागमद्रव्यसामायिक एवं द्रव्य सामायिक की वक्तव्यता जानना चाहिये। विवेचन—सूत्र 595, 596 में द्रव्यसामायिक के दो विभाग करके वर्णन किया है। जिसका आशय यह है कि पागम तथा नोनागम रूप दूसरे भेद के ज्ञायकशरीर, भव्यशरीर प्रभेद तक का वर्णन तो पूर्ववर्णित आवश्यक के अनुरूप है। किन्तु उभयव्यतिरिक्त का वर्णन उससे भिन्न होने के कारण सूत्रानुसार जान लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553