Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 500
________________ 450] [अनुयोगद्वारसूत्र [582 उ.] आयुष्मन् ! जिसने 'क्षपणा' यह पद सीख लिया है, स्थिर, जित, मित और परिजित कर लिया है, इत्यादि वर्णन द्रव्याध्ययन के समान यावत् यह पागम से द्रव्यक्षपणा है तक . जानना चाहिये। 584. से कि तं नोजागमओ दवज्शवणा? नोआगमओ दव्वज्झवणा ति विहा पण्णत्ता / तं जहा-जाणयसरीरदव्यज्झवणा भवियसरीरदव्वज्झवणा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दध्वज्झवणा / [584 प्र.] भगवन् ! नोग्रागमद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [584 उ.] आयुष्मन् ! नोश्रागमद्रव्यक्षपणा के तीन भेद हैं / यथा--१. ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा 2. भव्यशरिद्रव्यक्षपणा, 3. ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यक्षपणा / 585. से कि तं जाणयसरीरदवझवणा ? जाणयसरीरदव्वज्झवणा झवणापयस्थाहिकार-जाणयस्स जं सरीरयं ववगय-चुय-चइय-चत्तदेह, सेसं जहा दवज्झयणे, जाव य से तं जाणयसरोरदव्यज्शवणा / [585 प्र.] भगवन् ! ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा का क्या स्वरूप है ? [585 उ.] आयुष्मन् ! क्षपणा पद के अर्थाधिकार के ज्ञाता का व्यपगत, च्युत, च्यावित, त्यक्त शरीर इत्यादि सर्व वर्णन द्रव्याध्ययन के समान जानना चाहिये। यह ज्ञायकशरीरद्रव्यक्षपणा का स्वरूप है। 586. से कि तं भवियसरीरदब्वज्झवणा? भवियसरीरदब्वझवणा जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खते आयत्तएणं० जिणदिवणं भावेणं ज्झवण ति पयं सेवकाले सिक्खिस्सति, ण ताव सिक्खइ, को दिळंतो? जहा अयं धयकु भे भविस्सति, अयं महुकुभे भविस्सति / से तं भवियसरीरदव्वज्शवणा। [586 प्र.] भगवन् ! भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा किसे कहते हैं ? [586 उ.] आयुष्मन् ! समय पूर्ण होने पर जो जीव उत्पन्न हुना और प्राप्त शरीर से जिनोपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में क्षपणा पद को सीखेगा, किन्तु अभी नहीं सीख रहा है, ऐसा वह शरीर भव्यशरीरद्रव्यक्षपणा है / [प्र.] इसके लिये दृष्टान्त क्या है ? [उ.] जैसे किसी घड़े में अभी धी अथवा मधु नहीं भरा गया है, किन्तु भविष्य में भरे जाने की अपेक्षा अभी से यह घी का घड़ा होगा, यह मधुकलश होगा, ऐसा कहना। 587. से कि तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्यज्झवणा ? जाणयसरीरभवियसरीरवरित्ता दक्वझवणा जहा जाणयसरीरभवियसरीर वइरित्ते दवाए तहा भाणियव्वा, जाव से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्शवणा / से तं नोआगमओ बब्वज्झवणा / से तं दववज्झवणा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553