Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 491
________________ निक्षेपाधिकार निरूपण] [441 क्षय करने-निर्जरा करने और नवीन कर्मों का बंध नहीं होने देने का कारण होने से (मुमुक्षु महापुरुष) अध्ययन की अभिलाषा करते हैं। 125 यह नोग्रागमभाव-अध्ययन का स्वरूप है / इस प्रकार से भाव-अध्ययन और साथ ही अध्ययन का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में भावाध्ययन का वर्णन किया गया है। पागमभाव-अध्ययन का स्वरूप स्पष्ट है / नोभागमभाव-अध्ययन विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है नोप्रागमभावाध्ययन में प्रयुक्त 'नो' शब्द एकदेशवाची है। क्योंकि ज्ञान और क्रिया के समुदाय रूप होने से सामायिक आदि अध्ययन आगम के एकदेश हैं। इसीलिये सामायिक आदि को नोपागम से अध्ययन कहा है। गाथागत पदों का सार्थक्य—'अज्झप्पस्साऽऽणयण' पद की संस्कृत छाया--अध्यात्ममानयनंअध्यात्मम्-ग्रानयनम् है / इसमें अध्यात्म का अर्थ है चित्त और प्रानयन का अर्थ है लगाना। तात्पर्य यह हुआ कि सामायिक आदि में चित्त का लगाना अध्यात्मानयन कहा जाता है और इसका फल है-कम्माणं अवचो ....... ............."नवाणं / अर्थात् सामायिक आदि में चित्त की निर्मलता होने के कारण कर्मनिर्जरा होती है, नवीन कर्मों का पाश्रव-बंध नहीं होता है। अक्षीणनिरूपण 547. से कि तं अज्झीणे? अज्ञोणे चउन्विहे पण्णत्ते / तं जहा—णामझोणे ठवणझोणे दव्वज्झोणे भावझीणे। [547 प्र. भगवन् ! (प्रोघनिष्पन्ननिक्षेप के द्वितीय भेद) अक्षीण का क्या स्वरूप है ? |547 उ.] आयुष्मन् ! अक्षीण के चार प्रकार हैं। यथा-१. नाम-प्रक्षीण, 2. स्थापनाअक्षीण, 3. द्रव्य-अक्षीण और 4. भाव-अक्षीण / विवेचन--सूत्र में अक्षीण का वर्णन करना प्रारंभ किया है। अक्षीण का अर्थ पूर्व में बतलाया जा चुका है कि शिष्य-प्रशिष्य के क्रम से पठन-पाठन की परंपरा के चालू रहने से जिसका कभी क्षय न हो, उसे अक्षीण कहते हैं / प्रक्षीण के भी अध्ययन की तरह नामादि चार भेद हैं / नाम-स्थापना-अक्षीण 548. नाम-ठवणाओ पुव्ववणियाओ। [548, नाम और स्थापना अक्षीण का स्वरूप पूर्ववत् (नाम और स्थापना आवश्यक के समान] जानना चाहिये। द्रव्य-प्रक्षीण 546. से कि तं दव्यज्झीणे? दव्यझोणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रागमतो य नोआगमतो य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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