________________ वक्तव्यता निरूपण] [427 [525-2] ऋजुसूत्रनय स्वसमय और परसमय-इन दो वक्तव्यताओं को ही मान्य करता है। क्योंकि (स्वसमय-परसमयवक्तव्यता रूप तीसरी वक्तव्यता में से) स्वसमयवक्तव्यता प्रथम भेद स्वसमयबक्तव्यता में और परसमय की वक्तव्यता द्वितीय भेद परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भत हो जाती है। इसलिए वक्तव्यता के दो ही प्रकार हैं, किन्तु त्रिविध वक्तव्यता नहीं है। [3] तिणि सद्दणया [एगं] ससमयवत्तव्वयं इच्छंति, नत्यि परसमयवत्तव्वयं / कम्हा? जम्हा परसमए अणठे अहेऊ असम्भावे अकिरिया उम्मगे अणुवएसे मिच्छादसणमिति कटु, तम्हा सवा ससमयबत्तव्वया, अस्थि परसमयवत्तन्वया पत्थि ससमयपरसमयवतम्वया / से तं वत्तश्चया। [525-3] तीनों शब्दनय (शब्द, समभिरूढ एवंभूत नय) एक स्वसमयवक्तव्यता को ही मान्य करते हैं। उनके मतानुसार परसमयवक्तव्यता नहीं है। क्योंकि परसमय अनर्थ, अहेतु, असद्भाव, अक्रिय (निष्क्रिय), उन्मार्ग, अनुपदेश (कु-उपदेश) और मिथ्यादर्शन रूप है / इसलिए स्वसमय की वक्तव्यता है किन्तु परसमयवक्तव्यता नहीं है और न स्वसमय-परसमयवक्तव्यता ही है। इस प्रकार से वक्तव्यताविषयक निरूपण जानना चाहिये / / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया है कि पूर्वोक्त तीन वक्तव्यताओं में से कौन नय किसको अंगीकार करता है ? ___ नयदष्टियां लोकव्यवहार से लेकर वस्त के स्वकीयस्व रूप तक का विचार करती हैं। इसी अपेक्षा यहाँ वक्तव्यताविषयक नयों का मंतव्य स्पष्ट किया गया है। नैगम आदि सातों नयों में से अनेक प्रकार से वस्तु का प्रतिपादन करने वाले नैगमनय सर्वार्थ के संग्राहक संग्रहनय और लोकव्यवहार के अनुसार व्यवहार करने में तत्पर मान्यता है कि लोक में इसी प्रकार की रूढि-परम्परा प्रचलित होने से तीनों ही-स्व, पर और उभय समय की वक्तव्यताएँ माननी चाहिये। ऋजुसूत्रनय पूर्वोक्त नयों से विशुद्धतर है, अतः उसकी दृष्टि से दो-स्वसमय और परसमय की वक्तव्यता हो सकती है / स्वसमय-परसमय वक्तव्यता में से स्वसमयवक्तव्यता का स्वसमयवक्तव्यता में और परसमयवक्तव्यता का परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भाव हो जाने से वक्तव्यता का तोसरा भेद संभव नहीं है। अतएव तीसरी वक्तव्यता युक्तिसंगत नहीं है। जैसे नैगम आदि तीन नयों से ऋजुसूत्रनय विशुद्धतर को विषय करने वाला है, वैसे ही ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा अधिक विशुद्धतर विषय वाले शब्दादि तीनों नयों को एक मात्र स्वसमयवक्तव्यता ही मान्य है / क्योंकि परसमयादि शेष दो मान्यतायें मानने में यह विसंगतियां हैं... 1. परसमय 'नास्त्येवात्मा'- --अात्मा नहीं है, इत्यादि रूप से अनर्थ रूप का प्रतिपादक होने के कारण अनर्थ रूप इसलिये है कि प्रात्मा के अभाव में उसका प्रतिषेध कौन करेगा? जो यह विचार करता है कि मैं नहीं हूँ' वहीं तो जीव-आत्मा है। जीव के सिवाय अन्य पदार्थ संशयकारक नहीं हो सकता है। इसी प्रकार की और भी अनर्थता (विसंगतियां) परसमय में जानना चाहिये। 1. जो चितेइ सरीरे नत्थि प्रहं स एव होइ जीवोत्ति / न ह जीवंमि असंते संसप उप्पायमो अण्णो / अनुयोग. मलधारीबाबत्ति पत्र 244 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org