________________ 348 [अनुयोगद्वारसूत्र पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के बद्ध-मुक्त शरीर 422. [1] पंचेदियतिरिक्खजोणियाण वि ओरालियसरीरा एवं चेव भाणियब्बा। [422-1] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के भी प्रौदारिकशरीर इसी प्रकार (द्विन्द्रिय जीवों के औदारिकशरीरों के समान ही) जानना चाहिये / [2] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइया वेउविवयसरीरा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पं० / तं०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ गंजे ते बद्धेल्लया ते जं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहौरंति कालओ, खेत्तओ जाव विखंभसूयो अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जइभागो / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया / आहारयसरीरा जहा बेइंबियाणं / तेयग-कम्मगसरीरा जहा ओरालिया। 422-2 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये [422-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं --बद्ध और मक्त। उनमें से बद्धवक्रियशरीर असंख्यात हैं जिनका कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों से अपहरण होता है और क्षेत्रत: यावत् (श्रेणियों की) विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में वर्तमान श्रेणियों जितनी है / मुक्तवैक्रियशरीरों का प्रमाण सामान्य औदारिकशरीरों के प्रमाण तथा इनके आहारकशरीरों का प्रमाण द्वीन्द्रियों के प्राहारकशरीरों के बराबर है / तैजस-कार्मण शरीरों का परिमाण औदारिकशरीरों के प्रमाणवत् है / विवेचन--यहाँ पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि शरीरों की प्ररूपणा की है। बद्ध-मुक्त औदारिक, ग्राहारक, तैजस और कार्मण शरीरों के विषय में विशेष वर्णनीय नहीं है / क्योंकि इनके बद्ध और मुक्त औदारिकशरीर द्वीन्द्रिय जीवों के बराबर हैं। इनके बद्धाहारकशरीर नहीं होते हैं और मुक्ताहारकशरीर द्वीन्द्रियों के समान है। बद्ध तैजस-कार्मण शरीर इनके बद्धऔदारिकशरीरवत् है। किन्तु किन्हीं-किन्हीं के वैक्रियलब्धि संभव होने से वैक्रियशरीर को लेकर जो विशेषता है, इसका संक्षिप्त सारांश इस प्रकार है पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों के बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं, अर्थात् काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयों जितने प्रमाण वाले हैं तथा क्षेत्र की अपेक्षा ये प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणी रूप हैं और उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में वर्तमान श्रेणियों जितनी है। मुक्तवैत्रियशरीर औधिक भुक्तऔदारिकशरीरवत् अनन्त हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि यहाँ त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों के लिये सामान्य से असंख्यात कहा गया है। लेकिन असंख्यात के असंख्यात भेद होने से विशेषापेक्षा उनकी संख्या में अल्पाधिकता है। वह इस प्रकार-पंचेन्द्रिय जीव अल्प हैं, उनसे कुछ अधिक चतुरिन्द्रिय, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक और एकेन्द्रिय अनन्त गुणे हैं। इसलिये उनके शरीरों की असंख्यातता में भी भिन्नता होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org