________________ 356] [अनुयोगद्वारसूत्र [426-1 उ.) गौतम! जिस प्रकार नैरयिकों के औदारिकशरीरों की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार वैमानिक देवों की भी जानना चाहिये / [2] वेमाणियाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णता? गो० ! दुविहा पं० / तं0--बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बदल्लया ते गं असंखेज्जा, असंखज्जाहि उस्सप्पिणि-ओस प्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेतओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीण विक्खभसूई अंगुलबितियवग्गमूलं ततियवगमूलपडप्पण्णं, अहव णं अंगुलततियवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ / मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया। [426-2 प्र. भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने बँक्रिय शरीर कहे गये हैं ? {426-2 उ. गौतम ! दे दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्धवैक्रियशरीर असंख्यात हैं। उनका काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहरण होता है और क्षेत्रत्त: प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्कभसूची अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घनप्रमाण श्रेणियां हैं। मुक्तक्रियशरीर औधिक औदारिक शरीर के तुल्य जानना चाहिये। [3] आहार यसरीरा जहा नेरइयाणं / |426-3] वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त ग्राहारकशरीरों का प्रमाण नारकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों के बराबर जानना चाहिये / [4] तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएस चेय वेउवियसरीरा तहा भाणियस्वा / से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे। से तं खेलपलिओवमे। से तं पलिओवमे / से तं विभागणिफण्णे। से तं कालप्पमाणे / | 426-4] इनके बद्ध और मुक्त तेजस-कार्मण शरीरों का प्रमाण इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों जितना जानना चाहिये। यह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का स्वरूप है। इसके साथ ही क्षेत्रपल्योपम तथा पल्योपम का स्वरूप भी निरूपित हो चुका / साथ ही विभागनिष्पन्न कालप्रमाण एवं समग्न कालप्रमाण का कथन भी पुर्ण हुआ। विवेचन--- सूत्र में वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा करके कालप्रमाण का उपसंहार किया है। वैमानिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों के लिये नैरयिकों के शरीरों की संख्या का निर्देश किया है / इसका तात्पर्य यह है कि नरयिकों की तरह वैमानिक देवों के भी बद्धोदारिका शरीर नहीं होते / मुक्तौदारिकशरीर पूर्व के अनन्त जन्मों की अपेक्षा अनन्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org