Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 467
________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [417 से जो संख्या हो, उसमें एक को कम कर देने पर उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण निकलता है / अर्थात् प्रत्येक द्वीप, समुद्र में डाले गये सरसों के दाने और चारों पल्यों के दानों को एकत्रित करके उसमें एक को कम करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट संख्यात है।' सिद्धान्त में जहाँ कहीं भी संख्यात शब्द का व्यवहार हुआ है वहाँ सर्बत्र मध्यम संख्यात ग्रहण हुप्रा जानना चाहिये। इस प्रकार से त्रिविध संख्यात का स्वरूप बतलाने के पश्चात् प्रब नवविध असंख्यात का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। परीतासंख्यातनिरूपण 509. एवामेव उक्कोसए संखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं भवति, तेण परं अजहण्णमणुक्कोलयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं ण पावइ / [509] इसी प्रकार उत्कृष्ट संख्यात संख्या में रूप (एक) का प्रक्षेप करने से जघन्य परीतासंख्यात होता है। तदनन्तर (परीतासंख्यात के) अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थान हैं, जहाँ तक उत्कृष्ट परीतासंख्यात स्थान प्राप्त नहीं होता है। 510. उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं केत्तियं होति ? उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं जहण्णयं परित्तासंखेज्जयं जहणणयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासोणं अण्णमण्णाभासो रूवणो उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होति, अहला महन्तयं जुत्तासंखेज्जयं रूवर्ण उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं होइ। [510 प्र. भगवन् ! उत्कृष्ट परीतासंख्यात का क्या प्रमाण है ? [510 उ.] आयुष्मन् / जघन्य परीतासंख्यात राशि को जघन्य परीतासंख्यात राशि से परस्पर अभ्यास गुणित करके रूप (एक) न्यून करने पर उत्कृष्ट परीतासरन्यात का प्रमाण होता है। अथवा एक न्यून जघन्य युक्तासंख्यात उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण है / विवेचन... उक्त दो सूत्रों में असंख्यात के प्रथम भेद परीतासंख्यात के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इन तीनों भेदों का स्वरूप स्पष्ट किया है / जघन्य और मध्यम का स्वरूप सुगम है / उत्कृष्ट संख्यात में एक के मिलाने से जघन्य परीतासंख्यात गशि होती है / जैसे उत्कृष्ट संख्यात की राशि 100 है, इस राशि में एक (1) मिलाने 1. यह कामंग्रन्थि क मत है / चिन्तु अनयोगद्वार मलधारीया बत्ति में सकेत है - "यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्ट सङ ख्येक रूपाधिकम भवति / ' अर्थात अनवस्थित प्रादि पल्यों के खाली करने और भरने के क्रम से जितने द्वीप, समुद्र व्याप्त हए उन दोनों की संख्या मिलाने पर जो संख्या माती है वह संख्या एक मर्षप अधिक 'उत्कृष्ट संख्येय संख्या जानना चाहिये। -'-अनुयोग. मलधारोयावत्ति प्र.२३७ 2. सिद्धते जत्थ जत्थ संखिज्जगगहणं कतं तत्थ तत्थ सध्द अजहन्नमगुक्कोसयं दन्वं / –अनुयोगद्वारणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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