________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [385 दसव ये परिहारविशुद्धिचारित्राराधक दो प्रकार के होते हैं-१. इत्वरिक ओर 2. यावत्कथिक / इत्वरिक बे हैं जो कल्प को समाप्ति के बाद उसी पूर्व के कल्प या गच्छ में आ जाते हैं तथा जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के तत्काल जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे यावत्कथिक चारित्री कहलाते हैं। सूक्षमसंपरायचारित्र-जिसके कारण जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है, उसे संपराय कहते हैं। संसार-परिभ्रमण के मुख्य कारण क्रोधादि कवाय हैं। इसलिये इनकी संपराय यह संज्ञा है / जिस चारित्र में सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन के सूक्ष्म लोभरूप संपराय-कषाय का उदय ही शेष रह जाता है, ऐसा चारित्र सूक्ष्मसंपरायचारित्र कहलाता है / यह चारित्र सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती मुनियों को होता है। यह चारित्र संक्लिश्यमानक और विशुद्धचमानक के भेद से दो प्रकार का है। क्षपकआणि या उपशमश्रेणि पर प्रारोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है। जबकि उपशमश्रेणि से उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर वहाँ से गिरने पर साधक जब पुनः / गूणस्थान में आता है, उस समय का सुक्ष्मसंपरायचारित्र संक्लिश्यमानक कहलाता है। क्योंकि इस पतनोन्मुखी दशा में संक्लेश को अधिकता है और पतन का कारण संक्लेश है। इसीलिये इसको संक्लिश्यमानक कहते हैं। यथाख्यातचारित्र-प्राकृत में इसको ‘अहक्खाय' चारित्र कहते हैं। उसकी शाब्दिक ब्युसत्ति इस प्रकार जानना चाहिये अह-पा-अक्खाय / यहाँ अह अथ शब्द याथातथ्य अर्थ में, अा-अाङ उपसर्ग अभिविधि अर्थ में प्रयुक्त हुया है और अक्खाय क्रियापद है। जिसको संधि होने पर, अहाक्खाय पद बनता है। फिर 'ह्रस्वः संयोगे' इस सूत्र से प्रकार होने से अहक्खाय पद बन जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि यथार्थ रूप से सर्वात्मना जो चारित्र कषायरहित हो, उसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं। प्रात्मा के सर्वथा शुद्ध भाव का प्रादुर्भाव कषायों के नि:शेष रूप से अभाव होने पर होता है। इस चारित्र के दो भेद हैं—प्रतिपाती और अप्रतिपाती। जिस जीव का मोह उपशांत हमा है, उसका प्रतिपाती और जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो गया है, उसका चारित्र अप्रतिपाती होता है। अथवा पाश्रय के भेद से इस चारित्र के दो भेद हैं-छाद्मस्थिक (छद्मस्थ अर्थात् ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव का) ओर कैवलिक (तेरहवें और चोदहवें गुणस्थानवी जीव का)। यद्यपि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जोव का मोह सर्वथा उपशान्त और क्षीण हो जाता है परन्तु ज्ञानावरण आदि शेष तीन घातिकर्म (छद्म) रहते हैं। इसीलिये उनको छद्मस्थ कहा जाता है। केवली के मोह के सिवाय शेष तीन घातिकर्म भी एकान्तत: नष्ट हो जाते हैं। ___ इस प्रकार से चारित्रगुणप्रमाण की प्ररूपणा जानना चाहिये और इस चारित्रगुणप्रमाण का कथन समाप्त होने से जीवगुणप्रमाण का वर्णन पूर्ण हुआ / इसके साथ ही गुणप्रमाण का कथन भी समाप्त हो गया। अब क्रमप्राप्त नयप्रमाण का निरूपण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org