Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 464
________________ 414] [अनुयोगद्वारसूत्र कल्पना को सत्कल्पना और जो किसी वस्तु का स्वरूप समझाने में उपयोगी तो हो, किन्तु कार्य में परिणत न की जा सके उसे असत्कल्पना कहते हैं / सूत्रोक्त पल्य का विचार असत्कल्पना है और उसका प्रयोजन उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप समझाना मात्र है। सूत्र में जो एक लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई, तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष और कुछ अधिक साढे तेरह अंगुल की परिधि वाले एक पल्य का उल्लेख किया है, वह जम्बूद्वीप की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि के बराबर है और इसकी गहराई एक हजार योजन प्रमाण और ऊंचाई साढे पाठ योजन प्रमाण ऊंची पनवरवेदिका प्रमाण बताई है / यह ऊंचाई और गहराई मेरु पर्वत की समतल भूमि से समझना चाहिये। सारांश यह है कि वह पल्य तल से शिखा पर्यन्त 10083 योजन होगा। इसी प्रकार की लंबाई-चौड़ाई, गहराई-ऊंचाई और परिधि वाले तीन और पल्यों की कल्पना करें। इन चारों पल्यों के नाम क्रमशः 1. अनवस्थित, 2. शलाका, 3. प्रतिशलाका और 4. महाशलाका हैं। जिनके नामकरण का कारण इस प्रकार है अनवस्थितपल्य-आगे बढ़ते जाने पर नियत स्वरूप के अभाव वाले पल्य को अनवस्थितपल्य कहते हैं / यह दो प्रकार का है-१. मूल अनवस्थितपल्य और 2. उत्तर अनवस्थितपल्य / यद्यपि पहला मूल अनवस्थितपल्य नियत माप वाला होने से अनवस्थित नहीं, किन्तु आगे के पल्यों की अनवस्थितता का कारण होने से इसे भी अनवस्थित कहते हैं। उसके बाद के उत्तरवर्ती पल्य क्रमश: बढ़ते-बढते जाने के कारण अनियत परिमाण वाले होने से अनवस्थित कहलाते हैं। ये अनवस्थितपल्य अनेक बनते हैं, जिनकी ऊंचाई 10083 योजनमान नियत है लेकिन मूल अनवस्थितपल्य के सिवाय मागे के पल्यों की लम्बाई, चौड़ाई एक-सी नहीं है, उत्तरोत्त त्तरोत्तर अधिकाधिक है। जैसे जम्बूद्वीप प्रमाण मुल अनवस्थितपल्य को सरसों के दानों से भरकर जम्बूद्वीप से लेकर आगे के प्रत्येक समुद्र, द्वीप में एक-एक दाना डालते जाने के बाद जिस द्वीप या समुद्र में मूल अनवस्थितपल्य खाली हो जाये तब जम्बूद्वीप (मूल स्थान) से उस द्वीप या समुद्र तक की लम्बाई-चौड़ाई वाला नया पल्य बनाया जाये। यह पहला उत्तर अनवस्थितपल्य है। इसी प्रकार प्रागे-आगे मूल स्थान से लेकर समाप्त होने बाले सरसों के दाने के द्वीप या समुद्र तक के विस्तार वाले अनवस्थितपल्यों का निर्माण किया जाये। ये अनवस्थितपत्य कहाँ तक बनाना, इसका स्पष्टीकरण आगे के वर्णन से हो जाएगा। शलाकापल्य-एक-एक साक्षीभूत सरसों के दाने से भरे जाने के कारण इसको शलाकापल्य कहते हैं / शलाकापल्य में डाले गये सरसों के दानों की संख्या से यह जाना जाता है कि इतनी बार उत्तर अनवस्थितपल्य खाली हुए हैं। प्रतिशलाकापल्य-प्रतिसाक्षीभूत सरसों के दानों से भरे जाने के कारण यह प्रतिशलाकापल्य कहलाता है / हर बार शलाकापल्य के खाली होने पर एक-एक सरसों का दाना प्रतिशलाकापल्य में डाला जाता है। प्रतिशलाकापल्य में डाले गये दानों की संख्या से यह ज्ञात होता है कि इतनी बार शलाकापल्य भरा जा चुका है। महाशलाकापल्य-महासाक्षीभूत सरसों के दानों द्वारा भरे जाने के कारण इसे महाशलाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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