________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [41] 508 उ. आयुष्मन् ! उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा इस प्रकार करूंगा-(असत्कल्पना से) एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा और तीन लाख सोलह हजार दी सौ सत्ताईस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष एवं साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला कोई एक (अनवस्थित नामक) पल्य हो / (उसकी गहराई रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड से भी नीचे स्थित वज्रकाण्ड पर्यन्त 1000 योजन हो और ऊंचाई पयवरवेदिका जितनी साढ़े आठ योजन प्रर्थात तल से शिखा तक 10083 योजन हो। इस पत्य को सर्षपों—सरसों के दानों से भर दिया जाये। उन सर्षपों से द्वीप और समुद्रों का उद्धार-प्रमाण निकाला जाता है अर्थात् उन सर्षपों में से जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि के क्रम से एक को द्वीप में, एक को समुद्र में प्रक्षेप करते-करते उन दानों से जितने द्वीप-समुद्र स्पृष्ट हो जायें--- उतने क्षेत्र का अनवस्थित पल्य कल्पित करके उम पत्य को सरसों के दानों से भर दिया जाये। तदनन्तर उन सरसों के दानों से द्वीप-समुद्रों की संख्या का प्रमाण जाना जाता है। अनुक्रम से एक द्वीप में और एक समुद्र में इस तरह प्रक्षेप करते-करते जितने द्वीप-समुद्र उन सरसों के दानों से भर जाएँ, उनके समाप्त होने पर एक दाना शलाकापल्य में डाल दिया जाए / इस प्रकार के शलाका रूप पल्य में भरे सरसों के दानों से असंलप्य--अकथनीय लोक भरे हुए हों तब भी उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त नहीं होता है। इसके लिये कोई दृष्टान्त दीजिये ? जिज्ञासु ने पूछा / प्राचार्य ने उत्तर दिया-जैसे कोई एक मंत्र हो और वह आंवलों से पूरित हो, तदनन्तर एक प्रांवला डाला तो वह भी समा गया, दूसरा डाला तो वह भी समा गया, तीसरा डाला तो वह भी समा गया, इस प्रकार प्रक्षेप करते-करते अंत में एक आंवला ऐसा होगा कि जिसके प्रक्षेप से मंच परिपूर्ण भर जाता है / उसके बाद प्रांवला डाला जाये तो वह नहीं समाता है। इसी प्रकार बारंबार डाले गये सर्षपों से जब असंलप्य—बहुत से पल्य अंत में आमूलशिख पूरित हो जायें, उनमें एक सर्षप जितना भी स्थान न रहे तब उत्कृष्ट संख्या का स्थान प्राप्त होता है / विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों में संख्यात गणनासंख्या के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-इन तीनों भेदों का स्वरूप स्पष्ट किया है। जघन्य संख्यात-जघन्य और मध्यम संख्यात का स्वरूप सुगम है। दो की संख्या जधन्य संख्यात है / क्योंकि जिसमें भेद-पार्थक्य प्रतीत हो उसे संख्या कहते हैं और भेद की प्रतीति कम से कम दो में होने से दो को ही जघन्य संख्यात माना जाता है / मध्यम संख्यात--जघन्य संख्यात-दो से ऊपर और उत्कृष्ट संख्यात से पूर्व तक की अन्तरालवी सब संख्यायें मध्यम संख्यात हैं। इसके लिये कल्पना से मान लें कि 100 की संख्या उत्कृष्ट और दो की संख्या जघन्य संख्यात है तो 2 और 100 के बीच 3 से लेकर 99 तक की सभी संख्यायें मध्यम संख्यात हैं। उत्कृष्ट संख्यात-दो से लेकर दहाई, सैकड़ा, हजार, लाख, करोड़, शीर्षप्रहेलिका आदि जो संख्यात की राशियां हैं, उनका तो किसी न किसी प्रकार कथन किया जाना शक्य है, लेकिन संख्या इतनी ही नहीं है / अतएव उसके बाद की संख्या का कथन उपमा द्वारा ही संभव है / इसलिये सूत्र में उपमा कल्पना का आधार लेकर उत्कृष्ट संख्यात का स्वरूप स्पष्ट किया है। शास्त्र में सत् और असत् दो प्रकार की कल्पना होती है। कार्य में परिणत हो सकने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org