________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [387 तब अविशुद्ध नैगमनय के मतानुसार उसने कहा-प्रस्थक लेने के लिये जा रहा हूँ। फिर उसे वृक्ष को छेदन करते-काटते हुए देखकर कोई कहे--प्राप क्या काट रहे हैं ? तब उसने विशुद्धतर नैगमनय के मतानुसार उत्तर दिया-मैं प्रस्थक काट रहा हूँ। तदनन्तर कोई उस लकड़ी को छीलते देखकर पूछे-पाप यह क्या छील रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय की अपेक्षा उसने कहा--प्रस्थक छील रहा है। तत्पश्चात् कोई काष्ठ के मध्य भाग को उत्कीर्ण करते देखकर पूछे-आप यह क्या उत्कीर्ण कर रहे हैं ? तब विशुद्धतर नैगमनय के अनुसार उसने उत्तर दिया-मैं प्रस्थक उत्कीर्ण कर रहा हूँ। फिर कोई उस उत्कीर्ण काष्ठ पर प्रस्थक का आकार लेखन--अंकन करते देखकर कहे-आप यह क्या लेखन कर रहे हैं ? तो विशुद्धतर नैगमनयानुसार उसने उत्तर दिया-प्रस्थक अंकित कर इसी प्रकार से जब तक संपूर्ण प्रस्थक निष्पन्न-तैयार न हो जाये, तब तक प्रस्थक संबंधी प्रश्नोत्तर करना चाहिये। इसी प्रकार व्यवहारनय से भी जानना चाहिए / संग्रहनय के मत से धान्यपरिपूरित प्रस्थक को ही प्रस्थक कहते हैं / ऋजुसूत्रनय के मत से प्रस्थक भी प्रस्थक है और मेय वस्तु (उससे मापी गई धान्यादि वस्तु) भी प्रस्थक है। तीनों शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) के मतानुसार प्रस्थक के अर्थाधिकार का जाता (प्रस्थक के स्वरूप के परिज्ञान में उपयुक्त जीव अथवा प्रस्थककर्ता का वह उपयोग जिससे प्रस्थक, निष्पन्न होता है उसमें वर्तमान कर्ता प्रस्थक है। इस प्रकार प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा नयप्रमाण का स्वरूप जानना चाहिये / विवेचन--सूत्र में प्रस्थक के दृष्टान्त द्वारा नयदृष्टियों का संकेत किया है / प्रस्थक-यह मगध देश प्रसिद्ध एक पात्र का नाम है। इसमें धान्यादि भरकर माये जाते हैं। इस प्रकार के प्रस्थक को बनाने का संकल्प लेकर कोई व्यक्ति कुल्हाड़ी लेकर वन की ओर जा रहा हो / पूछने पर उसने जो उत्तर दिया कि प्रस्थक के लिये जा रहा हूँ, यह अविशुद्ध नैगमनय के अभिप्राय से संगत है / क्योंकि वस्तु को जानने के नैगमनय के अभिप्राय अनेक होते हैं। नैगमनय संकल्पित विषय में उस पर्याय का अारोप कर उसे उस पर्याय रूप मानता है। अतएव अभी तो प्रस्थक बनाने का विचार ही उत्पन्न हुअा है किन्तु उत्तर दिया है प्रस्थक को मानकर / काष्ठ को काटते समय उसने जो उत्तर दिया वह भी नैगमनयानुसार ठीक है, परन्तु पूर्व की अपेक्षा वह विशुद्ध है / इसके बाद काष्ठ को छीलते एवं उत्कीर्ण करते आदि प्रसंगों पर जो उत्तर दिये, उनमें भी नैगमनय की दृष्टि है, किन्तु वे सब कथन पूर्व की अपेक्षा विशुद्धतर हैं। इस प्रकार जब तक लोकप्रसिद्ध प्रस्थक नाम की पर्याय प्रकट न हो जाये, उससे पूर्व तक के जितने उत्तर होंगे वे सब नैगमनय के संकल्पमात्रग्राही होने से सत्य हैं और संकल्प के अनेक रूप होने से नैगमनय अनेक प्रकार से वस्तु को मानता है। इसीलिए कारण में कार्य का उपचार करके जो उत्तर दिया जाता है, वह नैगमनय की दृष्टि से है। ऐसा व्यवहार में भी देखा जाता है / सूत्र में बताये गये नैगमनय के अविशुद्ध, विशुद्ध और विशुद्धतर यह तीन रूप पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर में विशेषता के प्रदर्शक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org