________________ प्रमाणाधिकार निरूपण [397 नयप्रमाण के उक्त तीनों दृष्टान्तों से यह स्पष्ट है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सभी नयप्रमाण के विषय होते हैं। जैसे प्रस्थकदृष्टान्त में काल की मुख्यता है। वसतिदृष्टान्त में क्षेत्र का और प्रदेशदृष्टान्त में द्रव्य, भाव का विचार किया गया है। ये सभी नय ज्ञान रूप हैं और ज्ञान प्रात्मा का गुण है / इसलिये इन नयों का यद्यपि ज्ञानगुण में अन्तर्भाव हो जाता है, फिर भी प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाणों से इन्हें भिन्न इस कारण कहा गया है कि प्रथम तो ये वस्तु के एक अंश का मुख्य रूप से कथन करने के कारण प्रमाणांश रूप हैं। दूसरे बहु विचार के विषय हैं। जिनागम में स्थान-स्थान पर इनका उपयोग हुआ है। प्रस्थक, वसति और प्रदेश दृष्टान्तों से यहाँ जो नय का स्वरूप निरूपण किया है वह तो केवल उपलक्षण मात्र है / इसी तरह इन नयों से जीवादि पदाथों के स्वरूप का भी वर्णन किया जा सकता है। अब क्रमप्राप्त संख्याप्रमाण का निरूपण करते हैं / संख्याप्रमारणनिरूपण 477. से किं तं संखप्पमाणे? संखप्पम गते / तं जहा-नामसंखा ठवणसंखा दध्वसंखा ओवम्मसंखा परिमाणसंखा जाणणासंखा गणणासंखा भावसंखा। [477 प्र.] भगवन् ! संख्याप्रमाण का क्या स्वरूप है ? [477 उ.] आयुष्मन् ! संख्याप्रमाण आठ प्रकार का कहा है। यथा-१. नामसंख्या, 2. स्थापनासंख्या, 3. द्रव्यसंख्या, 4. प्रौपम्यसंख्या, 5. परिमाणसंख्या, 6. ज्ञानसंख्या, 7. गणनासंख्या 8. भावसंख्या। विवेचन-सूत्र में भेदों के द्वारा संख्याप्रमाण का वर्णन प्रारम्भ किया है / जिसके द्वारा संख्या—गणना की जाये उसे अथवा गणना को संख्या कहते हैं / संख्या रूप प्रमाण संख्याप्रमाण कहलाता है / प्राकृत भाषा में 'शषोः सः' सूत्र से शंख के 'श' के स्थान पर 'स' आदेश हो जाता है / अत : यहाँ 'संखा शब्द से संरया और शंख दोनों का ही ग्रहण सम भना चाहिये, जैसे 'गो' शब्द से पशु, भूमि इत्यादि का / संख्या और शंख इन दोनों का संख शब्द से ग्रहण होने के कारण नाम-स्थापना नादि के विचार में जहाँ संख्या अथवा शंख शब्द घटित होता हो वहाँ-वहाँ उस-उस शब्द की योजना कर लेना चाहिये। नाम-स्थापना संख्या 478. से कि तं नामसंखा ? नामसंखा जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा संखा ति णामं कजति / से तं नामसंखा। [478 प्र.] भगवन् ! नामसंख्या का क्या स्वरूप है ? [478 उ.] आयुष्मन् ! जिस जीव का अथवा अजीव का अथवा जीवों का अथवा अजीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org