________________ प्रमाणाधिकार निरूपण] [377 अथवा (लोकोत्तरिक) श्रागम तीन प्रकार का है। यथा-१. अात्मागम, 2. अनन्तरागम, और 3. परपरागम / अर्थागम तीर्थंकरों के लिये प्रात्मागम है। सूत्र का ज्ञान गणधरों के लिये प्रात्मागम और अर्थ का ज्ञान अनन्तरागम रूप है। गणधरों के शिष्यों के लिये सूत्रज्ञान अनन्तरागम और अर्थ का ज्ञान परम्परागम है। / तत्पश्चात् सूत्र और अर्थ रूप आगम आत्मागम भी नहीं है, अनन्तरागम भी नहीं है, किन्तु परम्परागम है / इस प्रकार से लोकोत्तर आगम का स्वरूप जानना चाहिये। यही पागम और ज्ञानगुणप्रमाण का वर्णन है। विवेचन--प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में ज्ञानगुणप्रमाण के अन्तिम भेद आगम का वर्णन करके अन्त में उसकी समाप्ति का उल्लेख किया है। प्राचीनकाल में जिज्ञासु श्रद्धाशील व्यक्ति धर्मशास्त्र के रूप में माने जाने वाले अपने-अपने साहित्य को कंठोपकंठ प्राप्त करके स्मरण रखते थे। इसीलिये उन धर्मशास्त्रों की श्रुत यह संज्ञा है। जैन परम्परा के शास्त्र भी प्राचीनकाल में श्रुत या सम्यक् श्रुत के नाम से प्रसिद्ध थे / श्रुत शब्द का अर्थ है सुना हुआ। लेकिन इस शब्द से शास्त्रों का विशिष्ट माहात्म्य प्रकट नहीं हो सकने से प्रागम शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। आगम' शब्द को व्याख्या ग्रन्थों में निरुक्तिमूलक से लेकर कर्ता की विशेषताओं आदि का बोध कराते हुए की गई पागम शब्द की व्याख्याओं का सारांश इस प्रकार है-- (गुरुपारम्पर्येण) आगच्छतीत्यगमः-गुरुपरम्परा से जो चला आ रहा है उसे आगम कहते हैं ! इस निरुक्ति से यह स्पष्ट हुअा कि आगम शब्द कंठोपकंठ श्रुतपरम्परा का वाचक है तथा श्रुत और आगम शब्द एकार्थवाची हैं। वर्ण्य विषय का परिज्ञान कराने की दृष्टि से अागम शब्द की लाक्षणिक व्याख्या यह हैआ समन्ताद् गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति आगमः—जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा भलीभांति जाने जायें वह आगम है। अर्थात् जिसके द्वारा अनन्त धर्मों से विशिष्ट जीब-अजीव आदि पदार्थ जाने जाते हैं ऐसी प्राज्ञा आगम है / अथवा वीतराग सर्वज्ञ देव द्वारा कहे गये षड् द्रव्य और सप्त तत्त्व आदि का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा व्रतादि का अनुष्ठान रूप चारित्र इस प्रकार से रत्नत्रय का स्वरूप जिसमें प्रतिपादित किया गया है, उसको प्रागम या शास्त्र कहते हैं। आगम का कर्ता कौन हो सकता है ? इसको स्पष्ट करते हुए आगम की व्याख्या की है--- जिसके सर्वदोष प्रक्षीण हो गये हैं, ऐसे प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा प्रणीत शास्त्र अागम शब्द के वाच्य हैं। अर्थात् जन्म, जरा आदि अठारह दोषों का नाश हो जाने से जो कदापि असत्य वचन नहीं बोलता ऐसे प्राप्त के वचन को पागम कहते हैं और इस प्राप्तोक्त पागम की प्रामाणिकता इसलिये है कि न्यूनाधिकता एवं विपरीतता के विना यथा-तथ्य रूप से वस्तु-स्वरूप का उसमें प्रतिपादन किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org