________________ 350] [अनुयोगद्वारसूत्र [423-3 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ? [423-3 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-बद्ध और मुक्त। उनमें से बद्ध तो कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं। जब होते हैं तब जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं / मुक्ताहारकशरीर प्राधिक मुक्तप्रौदारिकशरीरों के बराबर जानना चाहिये। [4] तेयग-कम्मगसरोरा जहा एतेसि चेव ओहिया ओरालिया तहा भाणियव्वा / [423-4] मनुष्यों के बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मण शरीर का प्रमाण इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के समान जानना चाहिये / / विवेचन-ऊपर मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि पंच शरीरों का परिमाण बतलाया है / मनुष्य मुख्य रूप से औदारिकशरीरधारी हैं / अतः उनके विषय में विशेष रूप से वक्तव्यता इस प्रकार है मनुष्यों के बद्धऔदारिकशरीर कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात, होते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य दो प्रकार के हैं—गर्भज और संमूच्छिम / इनमें से गर्भज मनुष्य तो सदैव होते हैं किन्तु समुच्छिम मनुष्य कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। उनकी उत्कृष्ट प्रायु भी अंतर्मुहर्त की होती है और उत्पत्ति का विरहकाल उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त प्रमाण कहा गया है। अतएव जव संमूच्छित मनुष्य नहीं होते और केवल गर्भज मनुष्य ही होते हैं, तब वे संख्यात होते हैं। इसी अपेक्षा उस समय वद्ध प्रीदारिकशरीर संख्यात कहे हैं। जब संमूच्छिम मनुष्य होते हैं तब समुच्चय मनुष्य असंख्यात हो जाते हैं। क्योंकि संमूच्छिम मनुष्यों का प्रमाण अधिक से अधिक श्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के तुल्य कहा गया है। ये समूच्छिम मनुष्य प्रत्येकशरीरी होते हैं, इसलिये गर्भज और समूच्छिम-दोनों के बद्धोदारिकशरीर मिलकर असंख्यात होते हैं। यद्यपि जघन्यपद में संख्यात होने से गर्भज मनुष्यों के औदारिकशरीरों का परिमाण निर्दिष्ट हो गया किन्तु संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं / इसलिये संख्यात कहने से नियत संख्या का बोध नहीं होता है / अतएव नियत संख्या बताने के लिये संख्यात कोटाकोटि कहा गया है और इसको विशेष स्पष्टता के लिये तीन यमल पद से ऊपर और चार यमल पद से नीचे कहा है। इसका प्राशय इस प्रकार है-...ये संख्यात कोटाकोटि 22 अंकप्रमाण होती है। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आठ-पाठ पदों की एक यमलपद संख्या है। अत: चौवीस अंकों के तो तीन यमलपद हो गये और उसके बाद पांच अंक शेष रहते हैं, जिनसे चौथे यमल पद की पूर्ति नहीं होती। इसी कारण यहाँ तीन यमलपदों से ऊपर और चार यमलपदों से नीचे यह पाठ दिया है। __ अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिये सूत्र में दुसरी विधि बताई है। पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर जो राशि निष्पन्न हो, जघन्य पद में उस राशिप्रमाण मनुष्यों की संख्या है / तात्पर्य इस प्रकार है कि एक का वर्ग नहीं होता / एक को एक से गुणा करने पर गुणनफल एक ही पाता है, संख्या में वृद्धि नहीं होती अत: एक को वर्ग रूप में गणना नहीं होती। वर्ग का प्रारम्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org