________________ 336] [अनुयोगद्वारसूत्र बद्ध-मुक्त प्राहारकशरीरों का परिमाण 415. केवइया गं भंते ! आहारगसरीरा पं० ? गोयमा! दुविहा पं० / तं-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ पंजे ते बद्धल्लया ते गं सिया अस्थि सिया नस्थि, जइ अस्थि जहण्णणं एगो वा दो बा तिणि वा, उक्कोसेणं सहसपुहतं / मुक्केल्लया जहा ओरालियसरीरस्स तहा भाणियव्वा / [415 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर कितने कहे गये हैं ? [415 उ.] गौतम ! पाहारकशरीर दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध स्यात् - कदाचित् होते है कदाचित् नहीं होते हैं / यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहनपृथक्त्व होते हैं। मुक्त अनन्त हैं, जिनकी प्ररूपणा औदारिकशरीर के समान जानना चाहिए। विवेचन यहाँ बद्ध और मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण बतलाया है। बद्ध आहारकशरीर चतुर्दशपूर्वधारी संयत मनुष्य के होते हैं। बद्ध आहारकशरीर के कदाचित् होने और कदाचित नहीं होने का कारण यह है कि आहारकशरीर का अंतर (विरहकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास का है। यदि अाहारकशरीर होते हैं तो उनकी संख्या जघन्यतः एक, दो या तीन होती है और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व हो सकती है। दो से नौ तक की संख्या का नाम प्रथक्त्व है और सहस्र कहते हैं, दस सौ (हजार) को। अतएव इसका अर्थ यह हमा कि उनकी उत्कृष्ट संख्या दो हजार से नौ हजार तक हो सकती है। अर्थात् एक समय में (पृच्छा काल में) उत्कृष्टत: एक साथ दो हजार से लेकर नौ हजार तक आहारकशरीरधारक हो सकते हैं। मुक्त पाहारकशरीरों का परिमाण मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिये। बद्ध-मुक्त तेजसशरीरों का परिमाण 416. केवतिया णं भंते ! तेयगसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पं० / तं-बखेल्लया य मुक्केल्लयाय / तत्थ णं जे ते बद्धल्लया ते गं अगंता, अणंताहि उस्सपिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्ततो अणंता लोगा, दवओ सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वजीवाणं अणंतभागूणा / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणताहि उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरति कालतो, खेततो अणंता लोगा, दवओ सव्वजीवेहि अणंतगणा जीववग्गस्स अणंतभागो। [416 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने कहे गये हैं ? [416 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें से बद्ध अनन्त हैं, जो कालत: प्रनन्त उत्सपिणियों-अवपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रत: वे अनन्त लोकप्रमाण हैं। द्रव्यत: सिद्धों से अनन्तगुणे और सर्व जीवों से अनन्तभाग न्यून हैं। मुक्त तैजसशरीर अनन्त हैं, जो कालतः अनन्त उत्सपिणियों-अवपिणियों में अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः अनन्त लोकप्रमाण हैं, द्रव्यतः समस्त जीवों से अनन्तगुणे तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं 1 विवेचन--यहाँ तेजसशरीरों का परिमाण बताया है। यह भी बद्ध और मुक्त के भेद से दो प्रकार के हैं। बद्ध तैजसशरीर अनन्त इसलिये हैं कि साधारणशरीरी निगोदिया जीवों के भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org